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माधुर्यातिशयो यद्वा, गुणौघः परमात्मनः ।
तथाऽऽख्यातुन शक्योऽपि, प्रत्याख्यातुन शक्यते ॥६॥ अथवा अतिशय मधरता के धारक परमात्मा का समुदाय अमुक प्रकार का है, यह भी नहीं कहा जा सकता और अमुक प्रकार का नहीं है, यह भी नहीं कहा जा सकता। (६)
बुद्धो जिनो हृषीकेशः, शम्भुब्रह्मादिपुरुषः ।
इत्यादिनामभेदेऽपि, नाऽर्थतः स विभिद्यते ॥७॥ बुद्ध, जिन, हृषिकेश, शंभु, ब्रह्मा आदिपुरुष इत्यादि नामों से अनेक भेद युक्त होने पर भी अर्थ से तनिक भी भेद नहीं है । (७)
धावन्तोऽपि नया नैके, तत्स्वरूपं स्पृशन्ति न ।
समुद्रा। इव कल्लोलैः, कृतप्रतिनिवृत्तयः ।।८।। दौड़ते हुए अनेक नय परमात्मा के स्वरूप का स्पर्श नहीं कर सकते। जिस प्रकार समुद्र की तरंगें समुद्र में लौट आती हैं उसी प्रकार से नय भी (परमात्म स्वरूप का स्पर्श किये बिना) पुनः लौट आते हैं। (८)
शब्दोपरक्ततद्रूप, -बोधकृन्नयपद्धतिः ( तेः )।
निर्विकल्पं तु तद्रपं, गम्यं नाऽनुभवं विना ।।६।। नय का मार्ग शब्दों के द्वारा उपरक्त बन कर परमात्म-स्वरूप का बोध कराता है, परन्तु परमात्मा का निर्विकल्प स्वरूप अनुभव के बिना केवल शब्दों से जाना नहीं जा सकता । (६)
केषां न कल्पना दर्वी, शास्त्रक्षीरानगाहिनी।
स्तोकास्तत्त्वरसा स्वाद - विदोऽनुभवजिह्वया ॥१०॥ शास्त्ररूपी क्षीरान्न का अवगाहन करने वाली कल्पना रूपी कड़छी भला किसे प्राप्त नहीं हुई है ? अनुभव रूपी जीभ (रसना) के द्वारा उसका रसास्वादन करने वाले जगत में विरले ही हैं। (१०)
जितेन्द्रिया जितक्रोधा, दान्तात्मानःशुभाशयाः ।
परमात्मति यान्ति, विभिन्न रपि वर्मभिः ॥११॥ जितेन्द्रिय, क्रोध-विजेता, आत्मा का दमन करने वाले और शुभ आशय वाले महापुरुष भिन्न-भिन्न मार्गों के द्वारा भी परमात्म स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करते हैं । (११) १. सामुद्रा इव कल्लोलाः ।
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[ जिन भक्ति
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