________________
संसारचक्रे भ्रमयन् कुबोध -
दण्डेन मां कर्म महाकुलालः ।
करोति दुःखप्रचयस्थ भाण्डं,
ततः प्रभो ! रक्ष जगच्छरण्य ! ||८||
इस संसार चक्र में कर्म रूपी महान् कुम्भकार कुबोध रूपी डण्डे से घुमाता हुआ मुझे दुःख के समूह का भाजन बनाता है । अतः हे प्रभु ! हे जगत् के शरणभूत ! आप मेरी रक्षा करें। (5)
Jain Education International
कदा त्वदाज्ञाकररणाप्ततत्त्व
स्त्यक्त्वा ममत्वादि भवैककन्दम् । श्रात्मैकसारो निरपेक्षवृत्ति
क्षेप्यनिच्छो भवितास्मि नाथ ! ||६||
हे नाथ ! आपकी आज्ञा का पालन करने से मुझे तत्त्व प्राप्त होने के कारण मैं इस संसार का मूल कारण स्वरूप ममता आदि का त्याग करके, आत्मा को ही तत्त्व मान कर संसार में निरपेक्ष व्यवहार युक्त तथा मोक्ष की भी इच्छा से रहित कब बनूंगा ? (ह)
तव त्रियामापतिकान्तिकान्तै
गु नियम्यात्ममन: प्लवङ्गम् । कदा त्वदाज्ञाऽमृतपानलोलः,
स्वामिन् ! परब्रह्मरतिं करिष्ये ?
॥ १० ॥ हे स्वामी ! आपके चन्द्रमा की चाँदनी (कान्ति) के समान मनोहर गुण रूपी डोरी के द्वारा मेरे मन रूपी बन्दर को बाँध कर आपकी प्राज्ञा रूपी अमृत के पान में लीन बना मैं कब ग्रात्म-स्वरूप में आनन्द - मग्न होऊँगा ? (१०)
एतावतीं भूमिमहं त्वदंहि
पद्मप्रसादाद् गतवानधीशम् !
हठेन पापास्तदपि स्मराद्या,
ही मामकार्येषु नियोजयन्ति ॥ ११ ॥
हे स्वामी ! आपके चरण-कमलों की कृपा से मैंने इतना उच्च स्थान प्राप्त किया है, फिर भी खेद की बात यह है कि बलात्कार पूर्वक काम
जिन भक्ति ]
[ 53
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org