Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 46
________________ अन्य दार्शनिकों के युक्तिविकल सिद्धांत भी (सूर्य-चन्द्र के ग्रहण आदि बता कर) जिन वचनों के द्वारा यश प्राप्त करते हैं, वे वचन सिद्धान्त रूपी महासागर के सामान्य बिन्दुओं की बूदे हैं। (४१) पइ मुक्के पोअम्मिव, जीहिं भवन्नवम्मि पत्तायो । अणुवेलमावयामहपडिएहि विडम्बणा विविहा ।।४२॥ (त्वयि मुक्त पोत इव जीवैर्भवार्णवे प्राप्ताः । अनुवेलमापदामुखपतितैविडम्बना विविधाः ॥) (जिस प्रकार सरिता के भीतर पड़े हुए जीव जहाज के अभाव में डूब जाते हैं, दुष्ट जलचर प्राणियों के द्वारा मृत्यू के मुख में समा जाने आदि की विविध विपत्तियां प्राप्त करते हैं उसी प्रकार हे नाथ !) जिन जीवों ने नौका-तुल्य आपका त्याग किया है वे आपत्तियों में फंसे हुए जीव संसारसागर में विविध विडम्बनाओं को बार-बार प्राप्त करते हैं (४२) वुच्छं अपत्थिप्रागय - मच्छभवन्तोमुहत्तवसिएण । छावट्ठी प्रयराइं, निरंतरं अप्वइट्ठाणे ।।४३॥ (उषितमप्रार्थितागममत्स्यभवान्तर्मुहूर्तमुषितेन । षट्षष्टिः प्रतराणि (सागरोपमानि) निरन्तरमप्रतिष्ठाने ॥) (हे देव ! अन्य भवों की तो क्या बात कहूँ) अचानक आये हुए मत्स्य के भव में अन्तम हर्त काल तक रह कर मैं (सातवी नरक के) अप्रतिष्ठान नरकावास में छासठ सागरोपम तक अविच्छिन्न रूप से रहा। (४३) सीउण्हवासधारा - निवायदुक्खं सुतिक्खमणुभून। तिरिअत्तणम्मि नाणा - वरणसमुच्छाइएणावि ॥४४॥ (शीतोष्णवर्षधारानिपातदुःखं सुतीक्ष्णमनुभूतम् । तिर्यक्त्वे ज्ञानावरणसमुच्छादितेनापि ॥) ज्ञानावरण कर्म से अत्यन्त आच्छादित होकर भी मैंने तिर्यंच के भव में शीत, ताप एवं वर्षा की धारा गिरने का अत्यन्त तीव्र दुःख अनुभव किया। (यह आश्चर्य है) (४४) जिन भक्ति । [ 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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