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अनाप्तजाड्यादिविनिर्मितित्व
संभावनासंभविविप्रलम्भाः। परोपदेशा: परमाप्तक्लुप्त
पथोपदेशे किमु संरभन्ते ॥१५॥ हे देवाधिदेव ! अनाप्तों की मन्द बुद्धि से रचित एवं विसंवाद से परिपूर्ण अन्य मतों के उपदेश, परम प्राप्त आपके द्वारा प्रतिपादित किये गये उपदेशों के समक्ष भला कैसे ठहर सकते हैं ? (१५)
यदार्जवादुक्तमयुक्तमन्यै
स्तदन्यथाकारमकारि शिष्यः। न विप्लवोऽयं तव शासनेऽभू
दहो अधृष्या तव शासनधीः ।।१६।। अन्य मतावलम्बियों के गुरुयों ने सरल भाव से जो कुछ भी अयोग्य कथन किया था उसका उनके शिष्यों ने विपरीत ढंग से प्रतिपादन किया। हे भगवन् ! उस प्रकार का विप्लव अापके शासन में नहीं हुआ। अहो! आपके शासन को लक्ष्मी का किसी से भी पराभव नहीं हो सकता। (१६)
देहाद्ययोगेन सदाशिवत्वं,
शरीरयोगादुपदेशकर्म । परस्परस्पधि कथं घटेत,
परोपक्लुप्तेष्वधिदैवतेषु ॥१७॥ . हे वीतराग ! देह आदि के प्रयोग से सदाशिवत्व एवं देह आदि के योग से उपदेश-कर्म ये दो परस्पर विरोधी धर्म अन्यों द्वारा कल्पित देवों में किस प्रकार हो सकते हैं ? कदापि नहीं हो सकते । (१७)
प्रागेव देवान्तरसंश्रितानि,
रागादिरूपाण्यवमान्तराणि । न मोहजन्यां करुणामपीश !
____समाधिमास्थ्ययुगाश्रितोऽसि ॥१८॥ राग आदि दोषों ने प्रथम से ही अन्य देवों का आश्रय लिया है। हे अधीश ! समाधि एवं मध्यस्थता को जपने वाले आपने मोहजनित करुणा का भी आश्रय नहीं लिया। (१८)
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[ जिन भक्ति
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