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ईर्षा से अंधे बने मनुष्य स्वयं कुमार्ग में लीन होकर दूसरों को कुमार्ग को ओर ले जाते हैं और सुमार्ग पर चलने वाले, सुमार्ग के ज्ञातानों तथा सुमार्ग के उपदेशकों का अपमान करते हैं, यह अत्यन्त खेद की बात है । (७)
प्रादेशिकेभ्यः परशासनेभ्यः,
पराजयो यत्तव शासनस्य । खद्योतपोतद्य तिडम्बरेभ्यो.
विडम्बनेयं हरिमण्डलस्य ॥८॥ हे प्रभु ! वस्तु के तनिक अंश को ग्रहण करने वाले अन्य दर्शनों के द्वारा आपके मत का पराभव करना एक छोटे से जुगनू के प्रकाश से सूर्य मण्डल का पराभव करने के समान है। (८)
शरण्य ! पुण्ये तव शासनेऽपि,
संदेग्धि यो विप्रतिपद्यते वा। स्वादौ स तथ्ये स्वहिते च पथ्ये,
संदेग्धि वा विप्रतिपद्यते वा ॥६॥ हे शरणागत आश्रयदाता ! जो मनष्य आपके पवित्र शासन के प्रति शंका एवं विवाद करते हैं, वे सचमुच स्वादिष्ट, अनुकूल एवं हितकर भोजन के प्रति शंका और विवाद करते हैं । (६)
हिंसाद्यसत्कर्मपथोपदेशाद
सर्व विन्मूलतया प्रवृत्त । नृशंसदुर्बुद्धिपरिग्रहाच्च,
ब्र मस्त्वदन्यागममप्रमाणम् ॥१०॥ हे भगवन् ! हिंसा आदि असत्य कर्मों के उपदेशक होने से, असर्वज्ञों द्वारा कथित होने से तथा निर्दय एवं दुर्बुद्धि मनुष्यों द्वारा ग्रहण किये हुए होने से आपसे अन्य मतों के आगम प्रामाणिक नहीं हैं । (१०)
हितोपदेशात्सकलज्ञक्लुप्ते
मुमुक्षसत्साधुपरिग्रहाच्च । पूर्वापरार्थेप्यविरोधसिद्ध
स्त्वदागमा एव सतां प्रमाणम् ॥११॥ 34 ]
[ जिन भक्ति
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