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श्रनेकमेकात्मकमेव वाच्यं,
द्वयात्मकं वाचकमप्यवश्यम् ।
श्रतोऽन्यथा वाचकवाच्यक्लृप्तावतावकानां प्रतिभाप्रमादः ॥ १४ ॥
जिस प्रकार समस्त पदार्थ अनेक होते हुए भी एक हैं, उसी प्रकार से उन पदार्थों को बताने वाले शब्द भी द्वयात्मक - एक एवं अनेक स्वरूप हैं । आपके सिद्धान्त को नहीं मानने वाले और वाच्य एवं वाचक सम्बन्धी उससे विपरीत कल्पना करने वाले प्रतिवादी बुद्धि में प्रमाद भाव धारण करने वाले हैं । (१४)
चिदर्थशून्या च जडा च बुद्धिः, शब्दादितन्मात्र जमम्बरादि । न बन्धमोक्षौ पुरुषस्य चेति,
कियज्जडैर्न ग्रथितं निरोधि ।। १५ ।।
चेतना स्वयं पदार्थों को नहीं जानती । बुद्धि जड़ स्वरूप है । शब्द से आकाश, गंध से पृथ्वी, रस से जल, रूप से अग्नि और स्पर्श से वायु उत्पन्न होती है तथा बंध अथवा मोक्ष पुरुष को नहीं होता, ऐसी कितनी विपरीत कल्पना जड़ मनुष्यों ने नहीं की ? (१५)
न तुल्यकालः फलहेतुभावो,
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हेतौ विलीने न फलस्य भावः । न संविदद्वं तपथेऽर्थसंविद्,
विलूनशी सुगतेन्द्र जालम् ॥ १६॥
कार्य एवं कारण दोनों साथ नहीं रह सकते। कारण का नाश होने पर भी फल की उत्पत्ति नहीं हो सकती । जगत् को यदि विज्ञान स्वरूप माना जाये तो पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता । इस प्रकार बुद्ध का इन्द्रजाल भी विलीन हो जाता है । ( १६ )
विना प्रमाणं परवन्न शून्यः, स्वपक्षसिद्ध: : पदमश्नुवीत । कुप्येत्कृतान्तः स्पृशते प्रमाण
महो सुदृष्टं त्वदसूयिदृष्टम् ॥१७॥
शून्यवादी प्रमाण के बिना अन्यवादियों की तरह अपना मत सिद्ध नहीं कर सकता । यदि वह किसी प्रमाण को माने तो स्वयं द्वारा मान्य
जिन भक्ति ]
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