Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 50
________________ मार्ग पर चलने वाला हाथी का बच्चा स्खलित होने पर भी जिस प्रकार चिन्ता का कारण नहीं बनता, उसी प्रकार से यदि मैं भी स्खलित हो जाऊँ तो चिन्ता का कारण नहीं है । (३) जिनेन्द्र! यानेव विबाधसे स्म. दुरन्तदोषान् विविधरुपायैः । त एक चित्रं त्वदसूययेव, कृताः कृतार्थाः परतीर्थनाथैः ॥४॥ हे जिनेन्द्र ! जिन दुरन्त दोषों का आपने विविध उपायों के द्वारा नाश किया है, पाश्चर्य है कि उन्हीं दोषों को अन्य मतों के देवों ने मानो आपके प्रति ईर्षा से ही स्वीकार कर लिया है । (४) यथास्थितं वस्तु दिशन्नधीश ! न तादशं कौशलमाश्रितोऽसि । तुरङ्गशृङ्गाण्युपपादयझ्यो, नमः परेभ्यो नवपण्डितेभ्यः ॥५॥ हे स्वामिन् ! आपने पदार्थों का जैसा है वैसा ही वर्णन किया है, अत: आपने अन्य मतावलम्बियों की तरह कोई कुशलता प्रदर्शित नहीं की। अश्व के सिंगों की तरह असंभव वस्तुओं को उत्पन्न करने वाले अन्य मत के नूतन पण्डितों को हम नमस्कार करते हैं । (५) जगत्यनुध्यानबलेन शश्वत, कृतार्थयत्सु प्रसभं भवत्सु । किमाश्रितोऽन्यैः शरणं त्वदन्यः, स्वमांसदानेन वृथा कृपालुः ॥६॥ हे पुरुषोत्तम ! ध्यान रूपी उपकार के द्वारा तीनों लोकों को सदा कृतार्थ करने वाले आपको छोड़ कर अन्य मतावलम्बियों ने अपना माँस दान करके दयालु कहलाने वालों का शरण क्यों ग्रहण किया है ? यह तनिक भी समझ में नहीं आता । (यह कटाक्ष बुद्ध पर किया है।) (६) स्वयं कुमार्गग्लपिता नु नाम, प्रलम्भमन्यानपि लम्भयन्ति । सुमार्गगं तद्विदमादिशन्त मसूययान्धा अवमन्वते च ॥७॥ जिन भक्ति ] [ 33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142