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अंतो निक्खंतेहि, पत्तेहि पिनकलत्तपुत्तेहिं । सुन्ना मणुस्सभवरणाडएसु निञ्झाइमा अंका ।।४५।। (अन्तनिष्क्रान्तः प्राप्तैः (पात्र:) प्रियकलत्रपत्र: ।
शन्या मनुष्यभवनाटकेषु निर्ध्याता प्रकाः ॥)
(हे नाथ) मनुष्य भव रूपी नाटकों में मुझे प्राप्त प्रिय पत्नी एवं पुत्र वृद्धावस्था से पूर्व मृत्यु के मुख में समा जाने से मुझे शून्य दिखाई दिया। (४५)
दिट्ठा रिउरिद्धीनो, पारगाउ कया महड्ढिप्रसुराणं । सहिमा य हीणदेवत्तरणेसु दोगच्चसंतावा ॥४६॥ (दृष्टा रिपुऋद्धय प्राज्ञाः कृता महद्धिकसुराणाम् । सोढौ च हीनदेवत्वेषु दौर्गत्यसन्तापौ ॥)
तदुपरान्त (देवलोक में भी) मैंने शत्रुओं को सम्पत्ति देखी, महद्धिक सुरों के शासनों को सिर पर चढाया और (किल्बिषिक जैसे) नीच देव-भव में दरिद्रता एवं सन्ताप सहन किये । (४६)
सिंचंतेण भववणं, पल्लट्टा पल्लिाऽरहट्ट व्व । घडिसंठाणोसप्पिणिअवसप्पिणिपरिगया बहुसो ॥४७॥ (सिञ्चता भववनं परिवर्ताः प्रेरिता अरघट्ट इव ।
घटीसंस्थानोत्सपिण्यवसप्पिणोपरिगता बहुशः ॥)
(हे नाथ ! मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद एवं योग, कर्मबंध के इन पांच कारण रूपी जल से) भव-वन का सिंचन करने वाले मैंने अरघट्ट की तरह घटी-संस्थान रूपी उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी से युक्त अनेक पुद्गल परावर्त व्यतीत किये । (४७)
भमियो कालमणतं, भवम्मि भीयो न नाह ! दुक्खारणं । संपइ तुमम्मि दिट्ट, जायं च भयं पलायं च ॥४८॥ (भ्रान्तः कालमनन्तं भवे भीतो न नाथ ! दुःखेभ्यः । सम्प्रति त्वयि दृष्टे जातं च भयं पलायितं च ॥)
हे नाथ ! मैं संसार में अनन्त काल तक भटकता रहा तो भी दुःखों से भयभीत नहीं हुया; परन्तु अभी जब मैंने आपको देखा तब (क्रोध आदि से होने वाली विडंबना का बोध होने पर) भय उत्पन्न हुआ और (साथ ही
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[ जिन भक्ति
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