Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 45
________________ मिच्छत्तविसपत्ता, सचेयरणा जिरण ! न हुंति कि जीवा ? कण्णम्म कमइ जइ कित्ति पि तुह वयरणमन्तस्स ॥ ३८ ॥ ( मिथ्यात्वविषप्रसुप्ताः सचेतना जिन ! न भवन्ति कि जीवाः ? कर्णयोः क्रामति यदि कियदपि तव वचनमन्त्रस्य || ) यदि मिथ्यात्व रूपी विष से मूर्छित जीवों के कानों में हे वीतराग ! आपकी वाणी रूपी मन्त्र का प्रमुक अंश भी प्रविष्ट हो तो वे जीव (भी रोहिणेय चोर तथा चिलाती पुत्र की तरह) क्या सचेत नहीं होते ? (३८) प्रायनिना खरगद्ध, पि परं थिरं ते करति श्रणुरायं । परसमया तहवि मरणं, तुह समयन्नूगं न हरति ॥ ३६ ॥ ( श्राकरिताः क्षणार्धमपि त्वयि स्थिरं ते कुर्वन्त्यनुरागम् । परसमयास्तथापि मनस्त्वत्समयज्ञानां न हरन्ति । ) अन्य (वैशेषिक, नैयायिक, जैमिनीय, सांख्य, सौगत प्रमुख ) दार्शनिकों के आगम आधे क्षरण तक श्रवण करने पर भी आपके प्रति हमारा अनुराग स्थिर रहता है और जिससे आपके सिद्धांतों के ज्ञाताओं के चित्त वे हर नहीं पाते । ( ३९ ) वाईहिं परिग्गहिमा, करंति विमहं खरगेण पडिवक्खं । तुज्भ नया नाह ! महागय व्व अन्नुन्नसंलग्गा ॥ ४० ॥ ( वादिभिः परिगृहीताः कुर्वन्ति विमुखं क्षरणेन प्रतिपक्षम् । तव नया नाथ ! महागजा इवान्योन्यसंलग्नाः ॥ ) हे नाथ ! अश्वों से घिरे हुए तथा परस्पर मिले हुए महान् गज जिस प्रकार शत्रु सेना को रणभूमि में से पीछे हटाते हैं उस प्रकार से अत्यन्त चतुर एवं वाद- लब्धि से अलंकृत वादियों के द्वारा स्वीकार करते हुए तथा परस्पर संगत से आपके नय क्षण भर में प्रतिपक्ष को ( वाद-विवाद के क्षेत्र से ) विमुख करते है । (४०) 28 ] पावंति जसं असमंजसा वि वयहि जेहि परसमया । तुह समयमहो अहिरणो, ते मंदा बिदुनिस्संदा ॥४१॥ ( प्राप्नुवन्ति यशोऽसमञ्जसा श्रपि वचनैयैः परसमयाः । तव समयमहोदधेस्ते मन्दा बिंदुनिस्यन्दाः ॥ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only [ जिन भक्ति www.jainelibrary.org

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