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संकल्प से दुर्लभ मोक्ष-सुख रूपी फल प्रदान करने वाले आप अपूर्व कल्पवृक्ष अवतीर्ण हुए, जिससे हे जगद्गुरु ! कल्पवृक्ष मानो लज्जित हो गये हों उस प्रकार अदृश्य हो गये । (६)
अरएणं तइएणं, इमाइ प्रोसप्पिणीइ तुह जम्मे । फुरिन करणगमएणं, व कालचक्किक्कपासंमि ॥७॥ (अरकेरण तृतीयेनास्यामवप्पिण्यां तव जन्मनि ।
स्फुरितं कनकमयेनेव कालचक्र कपावें ॥) कालचक्र के एक ओर इस अवसर्पिणी काल में आपके जन्म से तीसरा पारा स्वर्णमय जैसे सुशोभित रहा । (७)
जम्मि तुमं अहि सित्तो, जत्थ य सिवसुक्खसंपयं पत्तो। ते अढ़ावयसेला, सीसामेला गिरिकुलस्स ॥८॥ (यत्र त्वमभिषिक्तो यत्र च शिवसुखसंपदं प्राप्तः। तवाष्टापदशैलौ, शीर्षापीडौ गिरिकुलस्य ॥) जिस स्वर्ण-गिरि पर आपका जन्माभिषेक हुआ वह एक अष्टापद (मेरु) पर्वत तथा जहाँ आपने शिव-सुख की सम्पत्ति प्राप्त की अर्थात् जहाँ आपका निर्वारण हुअा वह विनीता नगरी के समीपस्थ आठ सीढ़ियों वाला दूसरा अष्टापद पर्वत-ये दोनों पर्वत समस्त पर्वतों के समूह के मस्तक पर मुकुट स्वरूप हो गये । (८)
धन्ना सविम्हयं जेहिं, झत्ति कय रज्जमज्जणो हरिणा। चिरधरिप्रनलिणपत्ताऽभिसेअसलिलेहिं दिट्ठो सि ॥६॥ (धन्याः सविस्मयं यैझटिति कृतराज्यमज्जनो हरिणा । चिरधृतनलिनपत्राभिषेकसलिलैदृष्टोऽसि ॥) हे जगन्नाथ ! इन्द्र के द्वारा शीघ्र राज्याभिषेक किये गये आपको दीर्घ काल तक कमल के पत्तों के द्वारा अभिषेक (जलधारण) किये हुए जिन युगलिकों ने देखा वे धन्य हैं। (६)
दाविप्रविज्जासिप्पो, वज्जरिमासेसलोप्रववहारो । जाप्रो सि जारण सामिप्र, पयानो तानो कयत्थानो ॥१०॥ (दशित विद्याशिल्पो व्याकतशेषलोकव्यवहारः । जातोऽसि यासां स्वामी प्रजास्ताः कृतार्थाः ।।)
जिन भक्ति ]
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