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हे भुवन- प्रदीप ! केवलज्ञान की पूजा के समय भरत ने आपको भी चक्र रत्न के समान देखा, क्योंकि विषय-तृष्णा पूज्य जनों को भी मति विभ्रम कराती है । (१७)
पढमसमोसरणमुहे, तुह केवलसुर वहूकनोज्जोना । जाया अग्गेई दिसा, सेवासय मागयसिहि व्व ॥ १८ ॥ ( प्रथम समवसरणमुखे तव केवल सुरवधू कृतोद्योता | जाता श्राग्नेयो दिशा सेवास्वयमागतशिखीव || ) आपके प्रथम समवसरण के महोत्सव में केवल सुर-सुन्दरियों (की द्युति से) प्रकाशित अग्नि दिशा भक्ति से प्राकर्षित हो कर स्वतः ही प्राये हुए अग्नि देव के समान हो गई । (१८)
गहिश्रवयभंगमलिणो, नूणं दूरोणएहि मुहराम्रो । ठवि (ई) श्रो पढमिल्लुप्रतावसेहिं तुह देसर पढमे ।। १६ ।। (गृहीतव्रतभङ्गमलिनो नूनं दुरावनतैर्मुखरागः । स्थगितः प्रथमोत्पन्नतापसैस्तव दर्शने प्रथमे || )
केवलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् समवसरण में आपके प्रथम दर्शन होने पर, प्रथम उत्पन्न हुए प्रत्यन्त विनम्र तापसों ने आपके साथ दीक्षा के समय ग्रहण किये हुए संयम व्रत के भंग से मलिन बना अपना चेहरा ( नमस्कार के बहाने ) सचमुच ढक दिया । (१६)
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तेहि परिवेढिए य, बूढा तुमए खरणं कुलवइस्स । सोहा विडं सत्थल घोलंतजडाकलावे ॥ २० ॥ ( तैः परिवेष्टितेन च व्यूढा त्वया क्षरणं कुलपतेः । शोभा विकटांसस्थल प्रें खज्जटाकलापेन 11 )
तथा ( वंदनार्थ आये ) उन तापसों से घिरे हुए और विशाल स्कंधप्रदेश को स्पर्श करती जटा समूह युक्त प्राप क्षण भर के लिए कुलपति के रूप में सुशोभित हुए । ( २० )
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तुह रुवं पिच्छंता, न हुंति जे नाह ! हरिसपsिहत्था । समणा वि गयमण च्चिय, ते केवलिरगो जइ न हुंति ॥ २१ ॥ ( तव रूपं पश्यन्तो न भवन्ति ये नाथ ! हर्षपरिपूर्णाः । समनस्का अपि गतमनस्का एव ते केवलिनो यदि न भवन्ति ॥ )
[ जिन भक्ति
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