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बात न्याय-संगत है क्यों) कि सत्पुरुष नहीं बोलते हैं तो भी वे अन्य जीवों का कार्य कर देते हैं। (१३)
मुणिणो वि तुहल्लीणा, नमिविनमी खेमराहिवा जाया। गुरुपारण चलणसेवां, न निष्फला होइ कइमा वि ॥ १४ ॥ (मुनेरपि तवालोनौ नमिविनमी खेचराधिपौ जाती।
गुरुकारणां चरणसेवा न निष्फला भवति कदापि ॥) मुनि बने आपके चरणों में अत्यन्त लोन हुए नमि और विनमि खेचरपति हुए, क्योंकि गुरुत्रों को (सच्चे अन्तःकरण से की गई) चरण-सेवा कदापि निष्फल नहीं जाती। (१४)
भदं से सेअंसस्स, जेण तवसोसिनो निराहारो। वरिसंते निव्वविनो, मेहेण व वरणदुमो तं सि ॥ १५ ॥ (भद्रं तस्य श्रेयांसस्य येन तपः शोषितो निराहारः।
वर्षान्ते निर्वापितो मेघनेव वनमस्त्वमसि ॥) जिस प्रकार वन वृक्षों को मेघ तृप्त करते हैं, उसी प्रकार से जिसने तपस्या से सूखे हुए ( कृश हुए ) आपको एक वर्ष के अन्त में (इक्षु-रस से) शान्त किया, उस श्रेयांस कुमार का कल्याण हो। (१५)
उत्पन्न विमलनाणे, तुमंमि भवणस्स विलियो मोहो । सयलुग्गयसूरे वासरंमि गयरणस्स व तमोहो ॥ १६ ॥ (उत्पन्नविमलज्ञाने त्वयि भुवनस्य विगलितो मोहः ।
सकलोद्गतसूर्ये वासरे गगनस्येव तमोघः ॥) जिस प्रकार पूर्ण सूर्योदय युक्त दिन में गगन के अंधकार का समूह नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार से हे नाथ ! आपको जब निर्मल केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तब विश्व में ( बसने वाले प्राणियों का सांसारिक ) मोह नष्ट हो गया। (१६)
पूनावसरे सरिसो, दिट्ठो चक्कस्स तं पि भरहेण । विसमा हु विसयतिण्हा, गुरुप्राण वि कुणइ मइमोहं ॥ १७ ॥ (पूजावसरे सदृशो दृष्टश्चक्रस्य त्वमपि भरतेन ।।
विषमा खलु विषयतृष्णा गुरुकारणामपि करोति मतिमोहम् ॥ ) जिन भक्ति ]
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