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प्राणा जस्स विलइया, सीसे सेस व्व हरिहरेहि पि । सो वि तुह झारगजलणे, मयरणो मयणं विश्न विलीणो ॥ २५ ॥ (आज्ञा यस्य विलगिता शीर्षे शेषेव हरिहराभ्यामपि ।
सोऽपि तव ध्यानज्वलने मदनो मदनमिव विलीनः ॥) जिसकी आज्ञा को हरि एवं हर ने भी शेषनाग की तरह शिरोधार्य की है, वह (अप्रतिहत सामर्थ्य वाला) मदन भी आपके शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि में मोम की तरह पिघल गया। (२५)
पइं नवरि निरभिमारणा, जाया जयदप्पभंजणत्ताणा । वम्महरिदजोहा, दिद्विच्छोहा मयच्छोरणं ॥२६॥ (त्वयि केवलं निरभिमाना जाता जगददर्पभोत्तानाः ।
मन्मथनरेन्द्रयोद्धा दृष्टिक्षोभा मृगाक्षीणाम् ॥) विश्व के दर्प को चूर करने में समर्थ कंदर्प राजा के योद्धा स्वरूप मगाक्षियों के कटाक्ष केवल आपके सम्बन्ध में ही निरभिमानी रहे हैं, अर्थात् सफल नहीं हुए । (२६)
विसमा रागद्दोसा, निता तुरय व्व उप्पहेण मणं । ठायंति धम्मसारहि ! दिळे तुह पवयरणे नवरं ॥२७॥ (विषमौ रागद्वेषौ नयन्तौ तुरगाविवोत्पथेन मनः। तिष्ठतो धर्मसारथे ! दृष्टे तव प्रवचने केवलम् ॥) जिस प्रकार मिथ्या मार्ग पर (रथ को) लेजाने वाले अश्व, सारथी की चाबुक देख कर सीधे मार्ग पर जाने लगते हैं, उसी प्रकार से धर्म रूपी रथ के हे सारथी ! जब आपके प्रवचन , सिद्धान्त के दर्शन होते हैं तब चित्त को कुमार्ग की ओर ले जाने वाले विषम राग एवं द्वष रुक जाते हैं अर्थात् उनका कोई जोर नहीं चलता। (२७)
पच्चलकसायचोरे, सइसंनिहिप्रासिचक्कधणुरेहा । हुँति तुह च्चिन चलणा, सरणं भीग्राण भवरन्ने ॥२८॥ (प्रत्यलकषायचौरेः सदासन्निहितासिचक्रधनरेखौ। भवतस्तवैव चरणौ शरणं भोतानां भवारण्ये ॥)
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[ जिन भक्ति
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