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ट्ठिो कहवि विहडिए, गंठिम्मि कवाडसंपुडघरमि । मोहंधयारचारयगएण जिरण ! दिणयरुव्व तुमं ॥३॥ (दृष्टः कथमपि विघटिते ग्रन्थौ कपाटसम्पुटघने ।
मोहान्धकारचारकगतेन जिन ! दिनकर इव त्वम् ॥) अनेक भवों से एकत्रित होने से द्वार के युगल जैसी गाढ़ राग-द्वेष के परिणाम स्वरूप गांठ का जब अत्यधिक परिश्रम से नाश हुआ, तब हे जिनेश्वर ! २८ प्रकार के मोह रूपी अंधकार से व्याप्त कारागृह में मुझे सूर्य के समान आपका दर्शन हुआ । (३)
भविपकमलारण जिणरवि ! दंसरणपहरिसससंताणं । दढबद्धा इव विहडंति, मोहतम-भमरविदाई ॥४॥ (भव्यकमलेभ्यो जिनरवे ! त्वदर्शनप्रहर्षोच्छ्वसद्भ्यः।
दृढबद्धानीव विघटन्ते मोहतमोभ्रमरवृन्दानि ॥) मिथ्यात्वरूपी रात्रि का नाश करने वाले एवं सुमार्ग की ज्योति फैलाने वाले हे जिन-सूर्य ! आपके दर्शन रूपी प्रकृष्ट प्रानन्द से विकसित भव्य कमलों से दढता पूर्वक बँचेहए मोह अंधकार रूपी भोरों के समूह मुक्त हो जाते हैं। (४)
लट्टत्तराहिमाणो, सवो सम्बटुसुरविमारणस्स । पई नाह ! नाहिकुलगर-, घरावयारुम्मुहे नट्ठो ॥५॥ (शोभनत्वाभिमानः सर्वः सर्वार्थसुरविमानस्य ।
त्वयि नाथ ! नाभिकुलकर,-गृहावतारोन्मुखे नष्टः॥) हे नाथ ! जब आपने नाभि कुलकर के घर में अवतार लिया, तब सर्वार्थसिद्ध नामक देव विमान का सौन्दर्य सम्बन्धी समस्त गर्व चूर-चूर हो गया। (५)
पई चितादुल्लहमुक्खसुक्खफलए अउव्वकप्पदुमे । अवइन्ने कप्पतरू जयगुरु ! हित्था इव पोत्था ॥६॥ (त्वयि चिन्तादुर्लभमोक्षसुखफलदेऽपूर्वकल्पद्रुमे । अवतीर्णे कल्पतर वो जगद्गुरो ! ह्रीस्था इव प्रोषिताः ॥)
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जिन भक्ति
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