Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 34
________________ सिद्धसारस्वतमहाकविश्रीधनपालविरचिता श्रीऋषभपंचाशिका जयतकप्पपायव ! चंदायव ! रागपंकयवरणस्स । सयलमुणिगामगामरिण ! तिलोअचूडामरिण ! नमो ते ॥१॥ (जगज्जन्तुकल्पपादप! चन्द्रातप ! रागपङ्कजवनस्य। सकलमुनिग्राम-ग्रामणो-स्त्रिलोकचूडामणे ! नमस्ते ॥) विश्व के जीवों को वांछित फल प्रदान करने वाले होने के कारण हे कल्पवक्ष के समान योगीश्वर !, राग रूपी सूर्य से विकसित होने वाले ( कमलों के वन को) उन्मीलित करने वाले होने से ( चन्द्रप्रभा) तुल्य परमेश्वर !, हे, सकल कला युक्त मुनिगण के नायक !, हे स्वर्ग, मर्त्य एवं पाताल ( अथवा अधोलोक, मध्यलोक एवं ऊर्ध्वलोक ) रूपी त्रिभुवन की (सिद्ध शिला रूपी ) चूडा के लिये ( उसके शाश्वत मण्डन रूप होने के कारण ) मणि तुल्य ऋषभदेव स्वामिन् ! आपको मेरा त्रिकरण शुद्धि पूर्वक नमस्कार हो ! (१) जयरोसजलगजलहर !, कूलहर ! वरणाणदंसरणसिरीणं । मोहतिमिरोहदिरणयर !, नयर ! गुरणगणाण पउराणं ॥२॥ (जय रोषज्वलनजलधर ! कुलगह ! वरज्ञानदर्शनश्रियोः । मोहतिमिरौघदिनकर ! नगर ! गुणगणानां पौराणाम् ॥) हे क्रोध रूपी अग्नि को शान्त करने में मेघ के समान !, हे उत्तम ( अप्रतिपाति ) ज्ञान एवं दर्शन रूपी लक्ष्मियों के प्रानन्दार्थ कुलगह तुल्य !, हे अज्ञान रूपी अंधकार के समूह का अन्त करने में सूर्य के समान !, हे ( तप, प्रशम आदि ) गुणों के समुदाय स्वरूप नागरिकों के नगर तुल्य ! आपकी जय हो, पाप सर्वोत्कृष्ट हों। (२) जिन भक्ति ] [ 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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