Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 29
________________ इधर-उधर दृष्टि डालता हुआ चंचल पुतली वाला निराधार एवं भयभीत बना हुआ मैं आपके बिना अवश्य नष्ट हो जाऊँगा । (५) अनन्तवीर्यसम्भार !, जगदालम्बदायक ! विधेहि निर्भयं नाथ ! मामुत्तार्य भवाटवीम् ॥६॥ हे अनन्त वीर्य के स्वामी ! विश्व के पालम्बन ! नाथ ! आप मुझे भव-वन से बाहर निकाल कर भय-मुक्त करें। (६) न भास्करादते नाथ ! कमलाकरबोधनम् । यथा तथा जगन्नेत्र ! , त्वदृते नास्ति निर्वृतिः ॥७॥ हे नाथ ! जिस प्रकार कमल - वन को विकसित करने वाला सूर्य के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है, उसी प्रकार हे विश्व-चक्षु ! आपके अतिरिक्त किसी से भी मेरी मुक्ति होने वाली नहीं है । (७) किमेष कर्मणां दोषः ?, कि ममैव दुरात्मनः ? कि वाऽस्य हतकालस्य ?, कि वा मे नास्ति भव्यता ? ॥८॥ हे त्रिलोक-भूषण प्रभु ! क्या यह मेरे कर्मों का दोष है ? अथवा मुझ दुरात्मा का स्वयं का दोष है ? अथवा क्या इस अधम काल का दोष है ? अथवा क्या मेरे में भव्यत्व-भाव नहीं है ? (८) कि वा सद्भक्तिनिर्ग्राह्य !, मद्भक्तिस्त्वयि तादृशो । निश्चलाऽद्यापि सम्पन्ना, न मे भुवनभूषण ! ॥६॥ अथवा हे सद्भक्ति से प्राप्त होने वाले भुवन-भूषण ! क्या अभी तक आपके प्रति मेरी ऐसी निश्चल भक्ति ही नहीं हुई है ? (E) लीलादलिततिःशेषकर्मजाल ! कृपापर ! मुक्तिमर्थयते नाथ !, येनाद्यापि न दीयते ? ॥१०॥ लीला मात्र में समस्त कर्म-जाल को काट डालने वाले हे कृपालु भगवान् ! क्या उस कारण से मुक्ति माँगने पर भी आप अभी तक मुझे मुक्ति प्रदान नहीं करते ? (१०) स्फूटं च जगदालम्ब !, नाथेदं ते निवेद्यते । नास्तीह शरणं लोके, भगवन्तं विमुच्य मे ।।११।। विश्व के आलम्बन हे प्रभु ! मैं स्पष्ट कह रहा हूँ कि इस लोक में आपके अतिरिक्त अन्य कोई भी मुझे शरणदाता नहीं है । (११) 12 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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