Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 31
________________ हे नाथ ! यह क्या उनकी भक्ति है अथवा पागलपन है ? आप अपने वचनों के द्वारा मुझे बतायें, कृपा करके मुझे कहें । (१८) मञ्जरीराजिते नाथ ! , सच्चते कल कोकिल: । यथा दृष्टे भवत्येव, लसत्कलकलाकुलः ॥१६॥ हे नाथ ! मंजरी से सुशोभित आम के वृक्ष को देखकर जिस प्रकार मनोहर कोयल कल-कल की ध्वनि करने लगती है; (१६) तथैष सरसानन्द-बिन्दुसन्दोहदायके । त्वयि दृष्टे भवत्येव, मूर्योऽपि मुखरो जनः ॥२०॥ युग्मम् उसी प्रकार से सरस आनन्द-बिन्दु के समह को प्रदान करने वाले आपको देख कर यह मूर्ख व्यक्ति भी वाचाल हो जाता है । (२०) तदेनं माऽवमन्यथा, नाथासंबद्धभाषिरणम् । मत्वा जनं जगज्ज्येष्ठ !, सन्तो हि नतवत्सलाः ॥२१॥ इस कारण जगत् के हे श्रेष्ठ पुरुष ! हे नाथ ! मुझे असम्बद्ध भाषण करने वाला मान कर मेरा तिरस्कार न करें, क्योंकि सन्त पुरुष नमन करने वाले प्राणियों के प्रति वत्सलता माव वाले होते हैं । (२१) कि बालोऽलीकवाचाल, प्रालजालं लपन्नपि । न जायते जगन्नाथ !, पितुरानन्दवर्धकः ? ॥२२॥ हे जगन्नाथ ! बालक अस्त-व्यस्त, सच्चा-मिथ्या अथवा पागल सा बोलता है तो भी क्या वह पिता के प्रानन्द में वद्धि करने वाला नहीं होता ? (२२) तथाऽश्लोलाक्षरोल्लापजल्पाकोऽयं जनस्तव । कि विवर्धयते नाथ !, तोष कि नेति कथ्यताम् ? ॥२३॥ हे नाथ ! मैं अश्लील अक्षरों के उल्लाप स्वरूप जैसी तैसी भाषा में बोलता हूँ, जिससे आपके आनन्द में वृद्धि होती है अथवा नहीं, यह आप मुझे बतायें। (२३) अनाद्यभ्यासयोगेन, विषयाशुचिकर्दमे । गर्ते सूकरसंकाशं, याति मे चटलं मनः ॥२४॥ 14 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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