________________
यदाज्ञा त्रिपद्येव मान्या ततोऽसौ,
तदस्त्येव नो वस्तु यन्नाधितिष्ठौ । प्रतो ब्रूमहे वस्तु यत्तद्यदीयं,
स एकः परात्मा गतिर्मे जितेन्द्रः ॥१४॥
अर्थ --- जिन भगवान की आज्ञा त्रिपदी ही है, जिससे उक्त त्रिपदी मानने योग्य है । जो वस्तु त्रिपदी से व्याप्त है वह वस्तु है, और जो वस्तु त्रिपदी से अधिष्ठित नहीं है वह वस्तु भी नहीं है । अतः हम कहते हैं कि जो वस्तु है वह त्रिपदीमय है, ऐसे श्री जिनेन्द्र भगवान एक ही मेरी गति हो । (१४)
न शब्दो न रूपं रसो नापि गन्धो,
न पूर्वापरत्वं न यस्यास्ति संज्ञा,
नवा स्पर्शलेशो न वर्णो न लिंगम् ।
अर्थ - जिन श्री जिनेन्द्र भगवान के शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श ये पांच विषय नहीं है, जिन प्रभु का श्वेत आदि वर्ण अथवा आकार नहीं है, जिनका स्त्रीलिंग, पुंलिंग अथवा नपुसंकलिंग कोई लिंग नहीं है, जिन्हें यह प्रथम अथवा यह द्वितीय ऐसी पूर्वापरता नहीं है तथा जिनके संज्ञा नहीं है, वे श्री जिनेन्द्र भगवान एक ही मेरी गति हों । (१५)
स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥१५॥
छिदा नो भिदानो न क्लेदो न खेदो,
न शोषो न दाहो न तापादिरापत् । न सौख्यं न दुःखं न यस्यास्ति वाञ्छा,
जिन भक्ति ]
अर्थ - जिन भगवान का शस्त्र आदि से छेद नहीं है, करवत आदि से भेद नहीं है, जल आदि से क्लेद नहीं है, खेद नहीं है, शोष नहीं है, दाह नहीं है, सन्ताप आदि प्रापत्ति नहीं है, सुख नहीं है, दुःख नहीं है, इच्छा नहीं है, वे एक ही श्री जिनेन्द्र भगवान मेरी गति हों ।
(१६)
Jain Education International
स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥ १६॥
न योगा न रोगा न चोद्वेगवेगाः, स्थितिर्नो गतिर्नो न मृत्युर्न जन्म । न पुण्यं न पापं न यस्यास्ति बन्धः,
स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥१७॥
For Private & Personal Use Only
[ 5
www.jainelibrary.org