Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 23
________________ प्रर्थ-जिन प्रभु को मन, वचन और काया के योग नहीं हैं, ज्वर आदि रोग नहीं हैं और जिनके चित्त में उद्वग का वेग नहीं है तथा जिन भगवान के आयु की सीमा नहीं है, पर-भव में जिन का गमन नहीं है, जिनकी मृत्यु नहीं है, जिनका चौरासी लाख जीवयोनि में जन्म अवतार नहीं है, जिनको पुण्य, पाप अथवा बंध नहीं है, वे एक ही श्री जिनेन्द्र मेरी गति हों। (१७) तपः संयमः सूनृतं ब्रह्म शौचं, मृदुत्वार्जवाकिंचनत्वानि मुक्तिः । क्षमैवं यदुक्तो जयत्येव धर्मः, स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥१८॥ अर्थ-जिनके द्वारा कथित तप, संयम, सत्य वचन, ब्रह्मचर्य, अचौर्य, निरभिमान, आर्जव (सरलता), अपरिग्रह, मुक्ति (निर्लोभ) और क्षमा-यह दस प्रकार का धर्म ज्वलन्त है, वे श्री जिनेन्द्र प्रभु एक ही मेरी गति हों। (१८) अहो विष्टपाधारभता धरित्री, निरालम्बनाधारमुक्ता यदास्ते । अचिन्त्यैव यद्धर्मशक्तिः परा सा, स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥१६॥ अर्थ-अहो ! जिन भगवान के धर्म की शक्ति अचिन्त्य एवं उत्कृष्ट है, जिससे भुवन की आधार रूप यह पृथ्वी पालम्बन और बिना आधार के स्थित है, वे श्री जिनेन्द्र परमात्मा ही मेरी गति हों। (१६) न चाम्भोधिराप्लावयेद भतधात्री, समाश्वासयत्यैव कालेम्बुवाहः । यदुद्भत-सद्धर्मसाम्राज्यवश्यः, ___ स एकः परात्मा गतिमें जिनेन्द्रः ॥२०॥ अर्थ-जिन भगवान् से प्रकट सद्धर्म के साम्राज्य के वशीभूत बना समुद्र इस पृथ्वी को डुबोता नहीं है और उचित समय पर मेघ (बादल) आते रहते हैं, वे ही श्री जिनेन्द्र भगवान् मेरी गति हों। (२०) 6 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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