Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 25
________________ कलिव्यालवह्निग्रहव्याधिचौर व्यथावारगव्याघ्रवीथ्यादिविघ्नाः । यदाज्ञाजुषां युग्मिनां जातु न स्युः, स एकः परात्मा गति जिनेन्द्रः ॥२५॥ अर्थ-जिन भगवान् के प्राज्ञा-पालक स्त्री-पुरुषों रूपी युग्मों को क्लेश, सर्प-भय, अग्नि-भय, ग्रह-पीड़ा, रोग, चोर का उपद्रव, गज-भय और व्याघ्र की श्रेणी अथवा व्याघ्र एवं मार्ग का भय आदि विघ्न कदापि नहीं होते, वे श्री जिनेन्द्र प्रभु एक ही मेरी गति हों। (२५) प्रबन्धस्तथैकः स्थितो वा क्षयी वा-, ___ऽप्यसद्वा मतो यैर्जडैः सर्वथाऽऽत्मा । न तेषां विमूढात्मनां गोचरो यः, स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥२६॥ अर्थ-जो जड़ मनुष्य आत्मा को सर्वथा कर्म-बंध रहित, एक, स्थिर, विनाशी अथवा असत् मानते हैं, उन मूढ़ मनुष्यों को जो भगवान् गोचर नहीं होते, वे एक ही श्री जिनेन्द्र भगवान् मेरी गति हों। (२६) न वा दुःखगर्भे न वा मोहगर्भ, स्थिता ज्ञानगर्भे तु वैराग्यतत्त्वे । यदाज्ञानिलीना ययुर्जन्मपारं, स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥२७॥ अर्थ-जिन भगवान् की आज्ञा दुःखगभित वैराग्य अथवा मोह-भित वैराग्य में नहीं रही है, किन्तु ज्ञानभित वैराग्य तत्त्व में रही है तथा जिनकी प्राज्ञा में लीन हुए मनुष्यों ने जन्म-मरण रूप संसार-सागर का पार पा लिया है, वे एक ही श्री जिनेन्द्र भगवान् मेरी गति हों। (२७) विहायास्रवं संवरं संश्रयैव, - यदाज्ञा पराऽभाजि यैनिविशेषैः । स्वकस्तरकायैव मोक्षो भवो वा, स एक: परात्मा गतिमें जिनेन्द्रः ॥२८॥ अर्थ-जिन निविशेष (सामान्य) पुरुषों ने "हे जीव ! तू आस्रव को छोड़ कर संवर का प्राश्रय ले' इस प्रकार की जिन भगवान की उत्कृष्ट आज्ञा का पालन किया है उन्होंने अपना भव/जन्म मोक्ष स्वरूप कर दिया 8 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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