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श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** और प्रजा भी तभी उसकी आज्ञाकारिणी हो सकती हैं। राजा और प्रजाका संबंध पिता और पुत्रके समान होता है, इसलिये जब जब राजाकी ओरसे अन्याय व अत्याचार बढ जाते हैं तब तब प्रजा अपना नया राजा घुन लिया करती है, और उस अत्याचारी अन्यायी राजाको राज्यच्युत करके निकाल देती है। इसी नियमानुसार राजगृहीकी प्रजाने अन्यायी चिलात नामक राजाको निकालकर महाराज श्रेणिकको अपना राजा बनाया और इस प्रकार श्रेणिक महाराज नीतिपूर्वक पुत्रवत् प्रजाका पालन करने लगे।
पश्चात् इनका एक और व्याह राजा चेटककी कन्या घेलनाकुमारीसे हुआ। चेलनारानी जैनधर्मानुयायी थी और राजा श्रेणिक बौद्धमतानुयायी थे। इस प्रकार यह केरबेर (केला और बेरी) का साथ बन गया था, इसलिये इनमें निरन्तर धार्मिक यादविवाद हुआ करता था। दोनों पक्षवाले अपने अपने पक्षके मण्डन तथा परपक्षके खण्डनार्थ प्रबल प्रबल उक्तियां दिया करते थे। परंतु "सत्यमेव जयते सर्वदा" की उक्ति के अनुसार अंतमें रानी घेलना ही की विजय हुई। अर्थात् राजा श्रेणिकने हार मानकर जैनधर्म स्वीकृत कर लिया और उसकी श्रद्धा जैनधर्ममें अत्यंत दृढ हो गई। इतना ही नहीं किन्तु यह जैनधर्म, देय या गुरुओंका परम भक्त बन गया और निरन्तर जैन धर्मकी उन्नतिमें सतत् प्रयत्न करने लगा।
एक दिन इसी राजगृही नगरके समीप उद्यान (वन) में विपुलाचल पर्वतपर श्रीमद् देवाधिदेव परम भगवान श्री १००८ पर्द्धमानस्यामीका समयशरण आया, जिसके अतिशयसे वहाँके पन उपसनोंमें छहों ऋतओंके फूल फल एक ही साथ फूल