Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 12
________________ (vi) जैनविद्या अपभ्रंश कवि मुनि नयनन्दी प्राचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा में हुए हैं। इनका समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी है । नयनन्दी ने अपने काव्य 'सुदंसणचरिउ' की रचना अवन्ति देश की धारानगरी के एक जिनमन्दिर में नृपेन्द्र भोजदेव के शासन-काल में की थी। _ 'सुदंसणचरिउ' एक चरितग्रन्थ है। चरितग्रन्थ एक प्रादर्श मानव के जीवन का रूपांकन होता है । कवि ने सुदर्शन के जीवन में आये सुखद एवं प्रिय प्रसंगों के साथ-साथ दुःखों, विपत्तियों, अप्रिय प्रसंगों का वर्णन भी किया है और बताया है कि ऐसी अवांछित परिस्थितियों में भी धीर-वीर, धर्मवत्सल मानव अपने पथ से च्युत नहीं होते, अपने प्राचरण से स्खलित नहीं होते अपितु उन विपरीत/प्रतिकूल परिस्थितियों से उदासीन होकर साहस एवं धैर्य से भोग कर उन्हें जीर्ण कर देते हैं। - शताब्दियों पूर्व 'जनबोली' अपभ्रंश में साहित्य-सृजन कर निश्चित ही उन मनीषियों ने एक प्रशस्त परम्परा स्थापित की थी किन्तु काल की दीर्घता में वह अोझल हो गयी। कुछ दशकों पूर्व मनीषियों ने बीते युग से बहती आ रही इस धारा के मूल को खोज निकाला और हमें अपने अतीत की ओर झांकने के लिए प्रेरणा दी। जनविद्या संस्थान भी उस प्रेरणा से से अपने गौरवमय अतीत की ओर झांकने के लिए प्रयासरत है। इसी क्रम में उसने अपभ्रंश के प्रति रुचि एवं अध्ययन को गति देने के कार्य को वरीयता प्रदान की है। प्रस्तुत अंक में 'सुदंसणचरिउ' पर विद्वानों द्वारा साहित्यिक, धार्मिक एवं सैद्धान्तिक दृष्टियों से विचार प्रस्तुत किये गये हैं । अपभ्रंश भाषा के व्याकरण-ज्ञान को सरल, सुकर एवं सुलभ करने के उद्देश्य से हेमचन्द्र के व्याकरण-सूत्रों का विवेचन भी प्रकाशित किया जा रहा है। जिन विद्वानों ने अपनी रचनाएं भेजकर इस विशेषांक के प्रकाशन में योगदान दिया है हम उनके प्राभारी हैं। पत्रिका के सम्पादक, सहयोगी सम्पादक एवं मुद्रक भी . धन्यवादाह हैं। नरेशकुमार सेठी प्रबन्ध सम्पादक

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