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जैनविद्या
उससे कहता है-वह कैसा साधु जो इन्द्रिय-लम्पटी हो ? जिस प्रकार अग्नि तृण व काष्ठ से तथा सागर लाखों नदियों से तृप्त नहीं हो पाता उसी प्रकार भोगाभिलाषी व लुब्धेन्द्रियविषयी जीव भोगों से संतुष्ट नहीं होता (11.9)। ऐसे लोगों को वह पात्र नहीं समझता अपितु एतद्विषयक एक तात्त्विक रहस्य की घोषणा करता है । वह रहस्य है जो दृढ़तर मिथ्यात्व और मद से उन्मत्त हैं वे संक्षेप से अपात्र हैं (6.7), वैराग्य या साधुता उनमें कहाँ ?
अपने में व्याप्त सम्यक्चारित्र के जोर से सुदर्शन कहता है-आगम में धर्मोपदेश सुलभ है, सुकविजनों में विशेष बुद्धि सुलभ है, मनुष्यभव में प्रिय कलत्र सुलभ है किन्तु बड़ी दुर्लभ है जिनशासन के अनुसार एक प्रति पवित्र वस्तु जिसे मैं पहिले कभी प्राप्त नहीं कर सका, उस सम्यक्चारित्र को मैं कैसे नष्ट कर दूं (8.32)?
यहाँ प्रागम के उपदेश और शाब्दिक बुद्धि से भी श्रेष्ठ सम्यक्चारित्र को प्रतिपादित किया है क्योंकि चित्त की अव्याकुलता तो स्व रूप में रमण करनेवाली वृत्तिस्वरूप जो सम्यक्चारित्र है, उससे ही होती है, आगम के उपदेश मात्र से नहीं । आगमोपदिष्ट तत्त्व के अनुरूप प्रवृत्ति का पुरुषार्थ किये बिना अनाकुलता कहाँ ? वीतरागता के विरुद्ध माचरण करनेवाले दृढ़तर गृहीत मिथ्यात्व में प्रवृत्त एवं अपने गुरुत्व के मद से उन्मत्त वेषधारियों को अपात्र कहकर कवि ने धर्मजिज्ञासुजनों को एक सर्वोत्कृष्ट शिक्षा प्रदान की है ।
वस्तु की अवस्था और उसकी परिणमनमिता को जाने बिना निरन्तर प्राकुलता और कर्तव्यबुद्धि का अहंकार जीव में बना रहता है । कवि ने वस्तु-व्यवस्था के अनुरूप होनेवाले कार्यों का परिज्ञान एक विशिष्ट दार्शनिक सिद्धान्त के आलोक में कराया है तथा प्रवाह में इसका निर्वाह सचमुच बहुत बड़ी सूझबूझ और अलौकिक पुरुषार्थ का प्रेरक है। दार्शनिकता है-प्रत्येक कार्य अपनी भवितव्यता के अर्थात् होने योग्य स्वभाव से ही होता है । एतन्निर्वाह . में कवि उदाहरण को भी उसी भवितव्यता के रंग में रंग देता है । वह कहता है-श्मशान में सूर्य भवितव्यतावश अस्त हो गया जैसे दानव का दलन करनेवाला शूरवीर भी प्रहारों से आहत होकर भवितव्यतावश मृत्यु को प्राप्त होता है (8.16)।
कामपीड़ित अभया सब कुछ जानती हुई भी पंडिता की सीख स्वीकार नहीं करती और मानती है कि भावी प्रति दुर्लध्य है (8.6) । अर्थात् जो होना है वह मिटाया नहीं जा सकता । तुम तो जबरदस्ती उसे उठाकर यहाँ ले मानो मैं उसके साथ पुरुषायित करूगी । जो बात देवाधीन है उसका कौन निवारण कर सकता है (8.21) ?
. जैसे कामी के चित्त से काम नहीं छूटता वैसे ही रानी का दुराग्रह छूटना सम्भव नहीं है । अपने इस निर्णय का मिलान वह इस दार्शनिक सिद्धान्त से करती है जो कुछ जिस द्वारा होनाहै वह एकांग रूप से घटित होकर ही रहेगा (8.9)। वह सोचती है- बेचारी इस वसुधाधिप पत्नी का दोष ही क्या है, जब त्रैलोक्य ही भवितव्यता के अधीन है (8.10)।, । .
भवितव्यता का अर्थ है होने योग्य । जो होने योग्य है वही होता है और जो होने योग्य नहीं है वह कभी नहीं होता, उसे करने में कोई समर्थ भी नहीं है । 'जो जो देखी वीतराग ने सो सो होसी वीरा रे । अनहोनी कबहूं नहिं होसी काहे होत अधीरा रे ।'