Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 60
________________ व्यसनों के दुष्परिणाम सप्पाइ दुक्खु, इह दिति एक्क भवे दुणिरिक्खु । विसय व भंति, जम्मतरकोडिहि दुह जणंति । वढ मायरेण, जो रमइ जूउ वहुउफ्फरेण । सो च्छोहजुत्तु, पाहणइ जणरिण सस परिणि पुत्तु । मंसासणेण, वड्ढेई बप्पु बप्पेण तेण । पहिलसइ मज्जु, जूउ वि रमेइ बहुवोससज्जु । पसरइ अकित्ति, ते कज्जे कीरइ तहो णिवित्ति। महरापमत्त, कलहेप्पिणु हिंसइ इट्ठमित्तु । रच्छहे पडेइ, उम्भियकर विहलंघलु रगडेइ । जे सूर होंति, सवरा हु वि सो ते णउ हरणंति । वणे तिण चरंति, णिसुणेवि खडकउ णिक उरति । वरणमयउलाई, किह हणइ मूढ किउ तेहि काई। पर्ष-सादिक विषले प्राणी असह्य दुःख देते हैं किन्तु इसी एक जन्म में, पर विषय तो करोड़ों जन्मजन्मांतरों में दुःख उत्पन्न करते हैं, इसमें सन्देह नहीं है। जो मूर्ख बड़े आदर से जुआ खेलता है, वह क्षोभ में प्राकर अपनी जननी, बहिन, गृहिणी तथा पुत्र का भी हनन कर डालता है। मांस खाने से दर्प (अहम्) बढ़ता है, उस दर्प से वह मद्य का भी अभिलाषी बनता है और जूमा भी खेलता है तथा अन्य दोषों में भी प्रासक्त होता है। इस प्रकार उसकी अकीति फैलती है । मदिरा द्वारा प्रमत्त हुआ मनुष्य कलह करके अपने इष्टजनों की भी हिंसा कर बैठता है, रास्ते में गिर पड़ता है और विह्वल हो हाथ उठाकर नाचने लगता है। जो सच्चे वीर होते हैं वे शबर (मांसभक्षी जंगली जाति) होकर भी वन में घास चरकर जीनेवाले निरीह प्राणियों, जो जरा सी खड़खड़ाहट से ही भयभीत हो जाते हैं, को नहीं मारते । मूर्खजन इन वनमृगों को क्यों छेदता है, मारता है ? इन (बचारों) ने क्या (बिगाड़) किया है ? सदसणचरिउ 2.10

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