Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 65
________________ बनविदा (21) बणे (वण) 7/1 तिण (तिण) 2/1 घरंति (चर) व 3/2 सक णिसुवि (णिसुण-+-एवि) संकू बाइकउ (खडका) 2/1 णिरु (म)=निश्चित रंति (डर) व 3/2 अक। (20) वणमयउलाई [(वण)-(मय)-(उल) 2/2] किह (अ)=क्यों हणइ (हण) व 3/1 सक मूढ़ (मूढ) 1/1 वि किउ (कि→किन) भूक 1/1 तेहि तेहिं (त) 3/2 स काईकाई (कि) 1/1 स । पारविरत्त [(पारद्धि)-(रत्त) भूकृ 1/1 मनि] चक्कवइ (चक्कवइ) 1/1 गरए10 (गरप) 7/1 गउ (गर) भूक 1/1 अनि बंभवत (बंभदत्त) 1/1 | (22) चलु (चल) 1/1 चोर (चोर) 1/1 पिठ्ठ (घिछ) भूकृ 1/1 अनि गुरुमाषबप्पु [(गुरु)-(माया)1 (बप्प) 2/1] मारणइ (माण) व 3/1 सक न (अ) =नहीं इठ्ठ (इट्ठ) भूक 1/1 अनि । (23) रिणयभुयबलेण [(णिय) वि-(भुय)-(बल) 3/1] बंचइ (वंच) व 3/1 सक ते (त) 2/1 स प्रवर (अवर) 2/2 वि (अ)=भी सो (त) 1/1 सवि छलेण (छल) 3/11 (24) भयकवि [(भय)-(कूव) 7/1] छुदु (छूढ) 1/1 वि णउ (म)=नहीं गिद्दभुक्षु [(गिद्द)-(मुक्ख) 2/1] पावेह (पाव) व 3/1 सक मूढ (मूढ) 1/1 वि। (25) पडिय (पद्धडिया) 1/1 एह (एप्रा) 1/1 सवि सुपसिद्धि (सुपसिद्धि) 1/1 रणामें (णाम) 3/1 विज्जलेह (विज्जलेहा) 1/1 । (26) घत्ता-पावेज्जह (पाव) व कर्म 3/1 सक बंधेवि (बंध+एवि) संकृणिज्जइ (णी) व कर्म 3/1 सक वित्थारेवि (विस्थार+एवि) संकृ रहे13 (रह) 7/1 चच्चरे (चच्चर) 7/1 डिज्जइ (दंड) व कर्म 3/1 सक तह (प्र) तथा खंडिज्जइ (खंड) व कर्म 3/1 सक मारिज्जइ (मार) व कर्म 3/1 सक पुरवाहिरे [(पुर)-(वाहिर) 7/1 वि] । - जिस प्रकार प्रागम में सभी सातों व्यसन समझाए गये (हैं) (उनको) हे पुत्र ! (तुम) सुनो (1) । सर्पादि (प्राणी) यहां एक जन्म में (ही) कठिनाई से विचार किये जानेवाले (घोर) दुःख को देते हैं (2) । किन्तु (इन्द्रिय) विषय करोड़ों जन्मों के अवसर पर दुःख उत्पन्न करते रहते हैं । इसमें (कोई) सन्देह नहीं है (3) । (इन्द्रिय) विषयों में लीन 10. कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है, 'गमन' अर्थ में द्वितीया होती हैं। (ह. प्रा. व्या. 3-135) 11. माया+माय (समासगत शब्दों में रहे हए स्वर परस्पर में दीर्घ के स्थान पर हस्व हो जाते हैं। (हे. प्रा. व्या. 1-4) 12 प्र-पाप-पाव=पकड़ लेना, प्राप्टे, संस्कृत-हिन्दी कोश । 13. रहे-चौराहे पर, टिप्पण, सुदंसणचरिउ, पृष्ठ 268 (2-10)।

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