Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 68
________________ 54 जनबिया इपरहं दिव्बाहरणहं पासिड : सोलु वि जुबइहे मंग्नु मासिउ । हरिवि खीय जाकिर दहवयणे सीलें सीय बड्ड एउ जल । तह प्रणतमइ सीलगुरुक्किय खगकिरायउबसग्गहं युक्किय । रोहिणि खरजलेण संभाविय सीलगुणेण गइए । ण बहाइय । हरि-हलि - चक्कवट्टि - जिणमायउ प्रज्ज वि तिहुयणम्मि विक्खायउ । (5) एयउ सीलकमलसरहंसिउ फणिणर खय रामरहिं पसंसिउ । जगणिए छारपुंज परि जायउ उ कुसील मयणेणुम्मायउ । सीलबंतु बुहयणे सलहिज्जइ सोलविवज्जिएण कि किज्जा । घत्ता-इस जाणेविणु सीलु परिपालिज्जए माए महासइ । एं तो लाहु णियंतिहे हले मूलछेउ तुह होसइ ॥ (10) (8.7) इयरह इयरहं (इयर) 6/2 वि दिग्वाहरणहरिम्बाहरणहं [(दिव्व)+ (माहरणह)] [(दिव्व)-(प्राहरण) 6/2] पासिउ (पास-+पासिप्र) भूकृ 1/1 सीलु (सील) 1/1 वि (अ)=भी जुवइहे (जुवइ) 6/1 मंडणु (मंडण) 1/1 भासिउ (भास) भूक 1/11 - हरिवि (हर+इवि) संकृ णीय (णीय) भूकृ 1/1 अनि जा (जा) 1/1 सवि किर (म)=जैसा कि बतलाया जाता है, वहवयणे =दहवयणे (दहवयण) 3/1 सोले सीलें (सील) 3/1 सीय (सीया) 1/1 दढ (दड्ढ) भूक 1/1 अनि गउ (अ)=नहीं जलणे= अलणे (जलण) 3/1। (2) तह (प्र)=उसी प्रकार अणंतमइ (प्रणंतमइ) 1/1 सीलगुरुश्किय [(सील-(गुरु)(क्किय) भूकृ 1/1 अनि] खगकिरायउवसग्गहें खगकिरायउवसग्गहं [(खग)-(किराय)(उवसग्ग)20 6/1]। - (3) रोहिणि (रोहिणि) 1/1 खरजनेण[(खर) वि-(जल)n 3/1] संभाविय (संभाविय)-भूकृ 1/1 अनि सीलगुणेण[(सील)-(गुण) 3/1] णइए (गई) 3/1 ण (म) =नहीं स्त्री. वहाइय (वह → वहाव → वहावियवहाविय-वहाइय → वहाइया) भूकृ 1/11 (4) हरि-हलि-बकवट्टि-जिएणमायउ [(हरि) (हलि)-(चक्कट्टि)-(जिण)-(मामा) 1/2] अन्तु (म)=प्राज वि (म)=भी तिहुयणम्मि (ति-हुयण) 7/1 विक्खायउ (विक्खाया) भूक 1/2 अनि ।। (5.) 20. अपभ्रंश भाषा का व्याकरण, पृष्ठ 151, कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हे. प्रा. व्या. 3-134) 21. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हे. प्रा. ष्या. 3-137)

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