Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 91
________________ जैन विद्या 77 20 विद्यानन्द प्रष्टशाखा प्राग्वाटवंशी ( परवार ) जाति के थे तथा इनके पिता का नाम हरिराज था । डा. हीरालाल जैन ने विभिन्न प्रमाणों के प्राधार पर विद्यानन्दि का समय वि. सं. 1513 (1456 ई.) के लगभग माना है 22 सुदर्शनचरित 12 अधिकारों में विभक्त है । प्रथम अधिकार में तीर्थंकर वन्दना एवं पूर्वाचार्यं स्मरण के साथ भगवान् महावीर का समागम, द्वितीय में श्रावकाचारोपदेश, तृतीय में सुदर्शन जन्मोत्सव, चतुर्थ में मनोरमा के साथ विवाह, पंचम में सुदर्शन का सेठ होना, षष्ठ में प्रलोभन भौर अभयमतीव्यामोह, सप्तम में उपसर्ग निवारण एवं शीलप्रभाव, अष्टम में मनोरमा के पूर्वभव, नवम में बारह भावनाएं, दसवें में दीक्षा एवं तप, ग्यारहवें में कैवल्य तथा बारहवें में मोक्ष प्राप्ति का वर्णन हुआ है । सम्पूर्ण ग्रन्थ अनुष्टुप् छन्दों में है परन्तु अधिकारों के अन्त में छन्दों में परिवर्तन हुआ है। मध्य में 'उक्तं च' कहकर अन्य ग्रन्थों से प्राकृत एवं संस्कृत के पद्य उद्धृत किये गये हैं । नोट - विद्यानन्दि कृत इस सुदर्शनचरित के बारहवें अधिकार के अन्त में एक श्लोक पाया जाता है गुरूणामुपदेशेन सच्चरित्रमिदं शुभम् । नेमिदत्तो व्रती भक्त्या भावयामास शर्मदम् ।। 31 ।। इस आधार पर कुछ विद्वानों ने इसे ब्रह्म नेमिदत्त विरचित मानने की भ्रांति की है तथा कुछ विद्वान् केवल बारहवें अधिकार को नेमिदत्त विरचित मानते हैं । परन्तु भावयामास भू धातु लिट् लकार का रिजन्त प्रयोग है श्रतः उसका नेमिदत्त ने ( अपने गुरु से ) रचना कई यह अर्थ लेना ही सुसंगत होगा। डा. नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा कृत "सम्वर्द्धन किया" या 'सम्पादन किया' अर्थ भी समीचीन नहीं है । डा. गुलाबचन्द्र चौधरी ने भी लिखा है कि विद्यानन्दि कृत उक्त काव्य को ही भ्रान्ति से उनके शिष्य ब्रह्म नेमिदत्त या मल्लिभूषण या विश्वभूषण कृत मान लिया गया है। 23 8. सुदर्शनरा ब्रह्मजिनदास भट्टारक सकलकीर्ति के अनुज एवं अन्तेवासी थे । ये हूंवड जाति के धनी र समृद्ध श्रावक कर्णसिह एवं श्राविका शोभा के पुत्र थे । अनेक मूर्तिलेखों में इनका नामोल्लेख हुआ है । एक मूर्ति का स्थापना काल वि. सं. 1510 (1453 ई.) है । फलतः ब्रह्मजिनदास का समय पन्द्रहवीं शताब्दी माना जा सकता है 1 24 ब्रह्मजिनदास ने यद्यपि संस्कृत में भी अनेक ग्रन्थ लिखे हैं पर मूलतः ये राजस्थानी कवि हैं | राजस्थानी में इनकी 50 से भी अधिक कृतियां उपलब्ध हैं । इनमें एक सुदर्शन रास भी है जो पंचनमस्कार मन्त्र के महत्त्व को प्रकट करने के लिए लिखी गयी है । 9. सुदंसणचरिउ अपभ्रंश काव्य निर्माण में महाकवि रइवे को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है । ये काष्ठासंघ माथुरगच्छ की पुष्करण शाखा के थे। इनका जन्म पद्मावती पुरवाल वंश में हुआ था ।

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