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जीवन का यथार्थ
................."णरजम्म जम्महं । तं पावेप्पिणु मढमइ जो णवि धम्मु करेइ ।
सो सासयसुहलच्छिहि एतिहिं कुप्परु देइ। छणम्मि छणम्मि पहिठ्ठ चलेइ, ण कि पि वि प्राउ गलंतु कलेइ । तुम चिरुजीउ पहिठ्ठ हवेइ, मरेहि सणेप्पिणु रोसु करेई । ण जाणइ मझु पडेसइ कालु, अचितिउ गावइ मच्छहो जालु । ____x xxx मुमो णरु कासु वि होइ ण इठ्ठ, संबधव ते वि वहति अणिठ्ठ । छिवंति ण णावइ कालउ सप्पु, पिया सुय तक्खरणे चितहिं अप्पु। विणासि सरीरहो जाणिवि थत्ति, हियत्थे पयत्तणु कोरइ झत्ति।
अहो जण धम्म पईउ जि लेहु, बलेवि म जम्मणकूवे पडेहु । अर्थ-सब जन्मों में नरजन्म श्रेष्ठ है। उस नरजन्म को पाकर जो धर्म नहीं करता वह मूढबुद्धि शाश्वतसुखरूपील्लक्ष्मी (मोक्ष) को धक्का देता है । क्षण प्रतिक्षण हर्ष मानता हुधा चलता है और अपनी गलती हुई आयु को नहीं देखता । 'तुम चिरंजीव रहो' ऐसा वचन सुनकर हर्षित होता है और ‘मर जानो' सुनकर रोष करता है। यह नहीं जानता कि काल मुझ पर उसी प्रकार प्रकस्मात् आ पड़ेगा जिस प्रकार मछली पर जाल ।
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मृतक मनुष्य किसी को भी इष्ट नहीं होता। सगे भाई-बंधु भी उसे प्रनिष्ट समझकर बाहर कर देते हैं। उसे छूते भी नहीं है, मानो वह काला सांप हो। उसी क्षण पत्नी, सुत (सब) केवल अपनी चिन्ता करने लगते हैं । अतएव, शरीर की नश्वर स्थिति को जानकर शीघ्रता से प्रात्महित में प्रयत्न करना चाहिये । अरे मनुष्य ! धर्मरूपी प्रदीप को लो (पकड़ो) जिससे लौटकर पुनः जन्मरूपी कूप में न गिरो।
-सुदंसणचरिउ 10.10