Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 81
________________ जनविद्या 67 जो पढइ सुरणइ भावइ लिहेइ, सो सासयसुहु भइरें लहेइ। 12.10 जो कोई इस (केवलि-चरित्र) को पढ़े, सुने, भावे या लिखे वह शीघ्र ही शाश्वत सुख का लाभ प्राप्त करे। नयनन्दी में उदात्त शैली का अनन्त प्रसार है। इनके उदात्तशिल्प की सबसे प्रमुख विशेषता है प्राच्छादन की कला । इसमें कलाकार शब्दों का ऐसा वात्याचक्र प्रस्तुत कर देता है कि एक-एक शब्द शत-शत शब्दों का हो जाता है । प्रारम्भ में ही कवि ने भगवान् जिनेन्द्र, मगष-देश एवं राजा श्रेणिक का ऐसा आलंकारिक वर्णन प्रस्तुत किया है कि प्राध्यात्मिक सर्जनात्मकता से संयुक्त वातावरण का सम्मोहक ध्वनि-धूम छा जाता है और पाठक उदात्त की भूमिका में स्वतः अवस्थित हो जाता है। जसु रुउ णियंतउ सहसणेत्त, हुउ विभियमणु एउ तित्त पत्तु । .. जसुचरणंगुठे सेलराइ, टलटलियउ चिरजम्माहिसेइ । महि कंपिय उच्छिल्लिय समुद्र, गेल्लिय गिरि गलगज्जिय गइंद । प्रोसरिय सोह जग्गिय फणिव, उखसिय भक्तिणहे ससिविणिद। 1.1 जिनके रूप को देखते ही इन्द्र विस्मित हो गया और तृप्ति को प्राप्त न हुमा, जिनके जन्माभिषेक के समय चरणांगुष्ठ से सुमेरु भी चलायमान हो उठा, पृथ्वी काँप उठी, समुद्र उछल उठे, पर्वत डोलने लगे, गजेन्द्र चीत्कार करने लगे, सिंह दूर हो गए, फणीन्द्र जाग उठे, आकाश में चन्द्र और सूर्य तत्काल विहँस उठे-इत्यादि । ये पूरी पंक्तियां ध्वनि, भाषा, शब्द-नियोजन, नाद, प्राकृति, समासिकता, पालंकारिकता आदि के कारण विराट परिवेश को उपस्थित करती हुई उदात्त को प्रस्तुत कर रही हैं। उदात्त-सरणि के लिए प्रावश्यक है कि गति की भिन्न-भिन्न भंगिमानों को रचनाकार मूर्तता प्रदान करे । इसमें पाठकों को ऐसा अनुभव होना चाहिये कि कथा-प्रवाह समतल धरातल पर ही नहीं चल रहा है वरन् आवश्यकतानुसार पंख पसार कर भी और कभी-कभी चील की तरह आकाश में उड़ते-उड़ते झपट्टा मार कर भी चल रहा है। इससे काव्य में तेजस्विता एवं जीवन्तता पाती है । खगे हिक्का थक्का देइ झग, खरणे लोट्टइ पेट्टइ गोवथा । खणे गासइ तासइ एहि अहो, खणे कोडइ पीडइ गाँइ गहो । सणे धावइ प्रावइ गाँइ मणो, सणे दोसइ गासइ गाई घणो । मह एक चमक्कु वहंतु मणे, इल रक्यु समक्स पहत्तु सणे ॥ 2.13

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