Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 79
________________ जैन विद्या नायक प्रकृति, संस्कृति और संस्कार से एक उदात्त मानव है । विलास का महारास उसके हृदय में क्षोभ उत्पन्न करने में असमर्थ है । वह वासना का मुरझाया हुमा केतकी-पुष्प नहीं अपितु धर्म-सरोवर में खिला हुमा कमल है जिसके पराग में मोक्ष लिपटा है। वह पलायनवादी संन्यासी नहीं वरन् परिवार-सूत्र में बंधा हुमा विरल-गृहस्थ है। मर्यादा-गम्भीर, पुरुषोत्तम, मानवीय भावों से सम्पन्न महामहिम यह पुरुष सहज ही उदात्त की आधारशिला है । 'सुदंसणचरिउ' में जिस जीवन-दर्शन को स्वीकार किया गया है वह वासना की विडम्बना, इन्द्रिय-विजय की सुफलता, धर्म की दुर्लभता एवं सम्यक्ज्ञान का प्रतिपादक है । कवि प्राश्चर्यचकित है कि इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर भी जीव सुखदायी धर्म का चिन्तन क्यों नहीं करता? धर्मरूपी प्रदीप के प्रकाश में चलने पर ही जन्म-मरणरूपी आवागमन के अन्धकारमय कूप में गिरने से बचा जा सकता है। इस दृष्टि को सामने रखने के कारण कवि ने कहीं प्रालिंगन, मुस्कान, मदन परवशता, विरहजाल, नीवी-बंधन, रतिसुख, स्पर्श-सुख, थरथर-गात के उल्लेख द्वारा वासना के मोहक स्वर्ग को धरती पर उतारा है और कहीं काम एवं भोग का अपकर्ष दिखाकर कष्टमय साधना को शाश्वत अनिवार्यता का गौरव प्रदान किया है । सत्य को घटनामों में और अर्थ को बिम्बों में साकार करने से ही साहित्य की सृष्टि होती है । कोरा सत्य साहित्य के लिए प्रेय ही है। 'सुदंसणचरिउ' प्रेय को श्रेय में परिवर्तित करने का सत्प्रयास है और इसी अर्थ में यह उदात्त है । शिल्प-विधान काव्य के दो पक्ष होते हैं-रागपक्ष और शिल्पपक्ष । प्रथम का सम्बन्ध अनुभूति से है, भाव से है, विचार से है । काव्य में अमूर्त भाव या विचार को मूर्तरूप प्रदान किया जाता है, निर्गुण-निराकार को सगुण-साकार विग्रह देना पड़ता है। इसके लिए कवि को कल्पनाशक्ति एवं शब्दशक्ति का प्राश्रय लेना पड़ता है। इन्हीं के द्वारा अमूर्त मूर्तरूप धारण करता है और भाव या विचार में मनोरमता आती है । इसे ही शिल्प कहते हैं । - काव्य के क्षेत्र में कवि संस्कृत की उस उत्तरवर्ती परम्परा का अनुयायी है जिसमें प्रलंकृत पद-रचना को काव्य की प्रात्मा के रूप में स्वीकार कर लिया गया था। कालिदास एवं भवभूति की सरस काव्य-रचना का स्थान माघ एवं दण्डी की अलंकार-प्रधान · रचना ने ले लिया था । नयनन्दी काव्य में अलंकारों को प्रधानता देनेवाले कवि हैं लक्सरणवंति य सालंकारिय, सुकइकहा इव जरणमणहारिय। 2.6 वह सुलक्षणों से युक्त और अलंकार धारण किये हुए लोगों के मन को उसी प्रकार प्राकृष्ट करती थी जैसे काव्य के लक्षणों से संपन्न प्रलंकारयुक्त सुकवि कृत कथा। नयनन्दी की दृष्टि में रस का प्राधान अलंकारों में ही निहित है। प्रलंकार-रहित काव्य रससृष्टि करने में समर्थ नहीं हो सकते ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116