Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 75
________________ सुदंसणचरिउ उदात्त की दृष्टि से -डॉ. गदाधर सिंह जो प्रालम्बन हमारे हृदय को उच्चतम भूमिका में प्रतिष्ठित कर देता है, वह उदात्त है । प्राचार्य श्री जगदीश पाण्डेय ने उदात्त की विवृत्ति करते हुए लिखा है - " शब्दों में प्रोऽम् उदात्त है । गंगावतरण का हरहर उदात्त है । नियाग्रा प्रपात का हरहर घोष उदात्त है । प्रलय के महाविप्लव को झेलती मनु की नौका का हृदय उदात्त है । श्रर्द्धरात्रि के प्रसंख्य तारों का जमाव उदात्त है। शिव की प्रविचल मंगलशान्ति उदात्त है । प्रेम के वेग में तुलसी का सांप - रस्सीवाला मोह उदात्त है। राम या भरत का शील उदात्त है । और ग्रांखों का दर्प उदात्त है । XXX और फांसी पर चढ़ने के पहले बाबूजी ?' कहनेवाला पात्र उदात्त है । प्रोऽम् में ऊर्जस्वित प्राण हैं। गंगावतरण में अतिशय वेग है। मनु की नौका में निःशेष सहिष्णुता है । तारों के जमाव में निस्सीम प्रायः विस्तार है । तुलसी में लगन का पूरा पागलपन है | राम में त्याग और भरत में अनुराग की प्रतिशेयता है । फांसीवाले पात्र में प्रमाद का प्रतिगुणन है । "1 मृगराज को गर्दन 'एक सिगरेट दोगे पाश्चात्य साहित्य - शास्त्र में सौन्दर्य-विवेचन के प्रसंग में उदात्त तत्त्व का भी विवेचन अनिवार्य रूप से होता प्राया है। काव्य में उदात्त तत्त्व की विवेचना करनेवाले पाश्चात्य विद्वानों में लांजाइनस (ई.पू. पहली शती), बर्क, कांट, हीगेल, ब्रॉडले, कैरंट, ब्रुक, वाल्टपेटर, सारायना, बोसांके, युग प्रादि की गणना की जाती है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116