Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 63
________________ जैनविद्या 49 (3) - मायष्णि (मायण्ण) विधि 2/1 सक पुत्त (पुत्त) 8/1 जह (म)=जिस प्रकार प्रागमे (आगम) 7/1 सत्त (सत्त) 1/2 वि वि (प्र)=संख्यावाचक शब्दों के पश्चात् प्रयुक्त होने पर 'समस्तता' का अर्थ होता है । वसण (वसण) 1/2 वृत्त (वृत्त) भूक 1/2 अनि । (1) सप्पाइ [(सप्प)+ (आइ)] [(सप्प)-(प्राइ) 1/2] दुक्खु (दुक्खु) 2/1 इह (अ)=यहां विति (दा) व 3/2 सक एक्का (एक्क) 7/1 वि भवे (भव) 7/1 दुणिरिमखु (दुणिरिक्ख) 2/1 वि । विसय (विसय) 1/2 वि (म)=किन्तु ण (अ)=नहीं भंति (मंति) 1/1 जम्मतरकोडिहि-जम्मतरकोडिहिं [(जम्म) + (अंतर)+ (कोडिहिं)] [(जम्म)-(अंतर)(कोडि) 7/2 वि] दुहु (दुह) 2/1 जणंति (जण) व 3/2 सक । चिरु [अ] =दीर्घकाल के लिए रद्दवत्तु [रुद्ददत्त] 1/1 णिविरिउ (णिविड+ णिविडिप्र) भूकृ 1/1 रणरयण्णवे [(णरय)+ (अण्णवे)] (णरय)-(अण्णव)7/1] विसयबुत • [(विसय)-(जुत्त) भूकृ 1/1 अनि]। बढ़ (वढ) 1/1 वि प्रायरेण (क्रि वि अ)=उत्साहपूर्वक जो (ज) 1/1 सवि रमह (रम) व 3/1 सक जूउ (जून) 2/1 बहुउफ्फरेण [(बहु) वि-(डफ्फर) 3/1] । (5) सो (त) 1/1 सवि च्योहजुत्तु [(च्छोह)-(जुत्त) भूक 1/1 पनि] पाहणड (पाहण) व 3/1 सक जणणि (जणणी) 2/1 सस (ससा) 2/1 घरिणि (घरिणी) 2/1 पुत्त (पुत्त) 2/11 . जूयं (जूय) 2/1 रमंतु (रम-रमंत) वकृ 1/1 णलु (णल) 1/1 तह य (म)=पौर इसी प्रकार हिडिल्लु (जुहिछिल्लु) 1/1 विहरु (विहर) 2/1 पत्त (पत्त) भूकृ 1/1 पनि ।(7) मंसासणेण [(मंस)+ (असणेण)] [(मंस)-(असण) 3/1] वढेइ (वड्ढ) व 3/1 प्रक बप्पु (दप्प) 1/1 स्प्पेण (दप्प) 3/1 तेण (त) 3/1 सवि । (8) महिलसह (अहिलस) व 3/1 सक मज्जु (मज्ज) 2/1 जूउ (जून) 2/1 वि (म)= भी रमेह (रम) व 3/1 सक बहुदोससज्जु [(बहु) वि-(दोस)-(सज्जु)3 2/1]। (9) पसरह (पसर) व 3/1 प्रक प्रकित्ति (अकित्ति) 1/1 ते=(त) 3/1 सवि कम्ज-कण (कज्ज) 3/1 कोरइ (कोरइ) व कर्म 3/1 सक अनि तहो' (त) 5/1 णिवित्ति (णिवित्ति) 1/11 . .. .............. . (10) (6) 1. शून्य विभक्ति, अपभ्रंश भाषा का व्याकरण, पृष्ठ, 147. 2. दुनिरीक्ष 3. सर्जु सज्जु गमन, अनुसरण, (संस्कृत-हिन्दी कोश, आप्टे)।- . 4. यह विधि-अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, अपभ्रंश भाषा का व्याकरण, पृष्ठ 215। ... 5. अपभ्रंश भाषा का व्याकरण, पृष्ठ 248 ।

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