Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 41
________________ जैनविद्या 27 कुलसंतइए धम्मु संपज्जइ, धम्मे पाउ खिज्जए। पावक्खएण बोहि ताए वि पुण, सासयपूरि गमिज्जए। 5.2.1 कुलसंतति से धर्म संपादन होता है और धर्म से पाप क्षीण होता है । पापक्षय से ज्ञान और ज्ञान से फिर मोक्षरूपी शाश्वतपुरी को गमन किया जा सकता है। सामान्यक __ यह 'मीलित' से मिलता-जुलता अलंकार है। 'मीलित' में एक वस्तु दूसरी से सम्पर्क में आने पर रंग साम्य के कारण उसमें विलीन हो जाती है और अलग नहीं दिखायी पड़ती। 'सामान्यक' में रंग और रूप की समानता होने पर भी दो वस्तुएं अलग-अलग दीख पड़ती हैं किन्तु दोनों इतनी समान दीख पड़ती हैं कि यह मालूम करना संभव नहीं होता कि कौन क्या है ? 'सुदंसणचरिउ' में अरुण और कोमल रक्तोपल और नायिका के करतलों का अभेदत्व 'सामान्यक' का उदाहरण है - क वि चाहह सारुणकोमलाहं, अंतरु रत्तुप्पलकरयलाहं । 7.14.4 . कोई अरुण और कोमल रक्तोपलों तथा अपने करतलों में भेद जानना चाहती थी। मानवीकरण जब अमानव में मानव के गुणों का आरोप किया जाय तब अंग्रेजी में मान्य 'मानवीकरण' अलंकार होता है । 'सुदंसणचरिउ' में जलक्रीड़ा के समय रमणियों से विलोडित जल और युद्धभूमि के उड़ते हुए धूलि के मानवीकरण उत्तम हैं तहुं पइसरेवि जलु पय घरेइ, पुण रमणएसे विन्भम करेइ । एं तहि जे तहिं जे लोणउ बडेइ, तिवलिउ पिहंतु थणहरे चडेइ । चुंबेवि क्यणु बालहं घरेइ, कामुयणरासु जलु अणुहरेइ । प्राइउ करेण दुरुच्छलेह, प्रासत्तिए पुणु णं वरि पडेइ । 7.17.3-6 सरोवर में कामिनी के प्रविष्ट होने पर जल उसके पैर पकड़ता, फिर उसके रमण प्रदेश में विभ्रम करता , जहां-तहां लीन होकर दलन करता तथा त्रिवली को ढ़ककर वक्षस्थल पर चढ़ता, मुख को चूमकर बाल पकड़ता । इस प्रकार जल कामी-पुरुष का अनुसरण करने लगा। कामिनी के हाथ से पाहत होने पर दूर उछलता किन्तु प्रासक्ति से पुनः ऊपर मा पड़ता। जाम ताम सहसा धूलीरउ, उठ्ठिउ बलहं णाई विणिवार । लग्गेवि पयह णाई मण्णावइ, विहुणिउ तइ वि कडिथिइ पावइ । तहे अवगणियो वि रणउ रूसइ वच्छत्थले पेल्लंतु व दीसइ । बुण्णिवारघायहं रणं संकइ, दिठिपसरु एं मंडए ढंकइ। 9.5

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