Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 46
________________ 32 जैनविद्या भ्रमरपदा, पावली, मदनावतार, मदन, चंडपालदंडक, चन्द्रलेखा, वस्तु, पृथिवी, रासाकुलक और मौक्तिकदाम । सन्धि 9-विलासिनी, अलिल्लह, कुसुमविलासिनी, विसिलोय, विज्जुला, पद्धडिया, सिद्धक, मुखांगलीलाखंडक, अमरपुरसुन्दरी, चारुपदपंक्ति, मदन, मौक्तिकदाम, तोणक और समानिका। सन्धि 10-निःश्रेणी, विलासिनी, पंचचामर, विषमवृत्त (वाणिक), सोमराजी और पद्धडिया। सन्धि 11-विषमवृत्त (वाणिक), मदिरा, पद्धडिया, अमिल्लह, स्रग्विणी, विलासिनी, कुवलयमालिनी, शशितिलक, मन्दारदाम, मानिनी, मणिशेखर और मानन्द । सन्धि 12-पद्धडिया, अनुसारतुला, विद्युन्माला, चन्द्रलेखा, अलिल्लह, मदनावतार और भुजंगप्रयात । इन छन्दों के अतिरिक्त, कडवकों के आदि-अन्त में ध्रुवक, पत्ता, द्विपदी, पारणाल (षट्पदी), रचिता मादि छन्दों का भी समीचीन संगुंफन हुआ है। इस प्रकार, इस छोटे से काव्यग्रन्थ में छन्दों का इतना सघन प्रयोग कविमनीषी नयनन्दी की सुतीक्ष्ण छन्दःप्रतिभा का अभूतपूर्व उदाहरण प्रस्तुत करता है । संस्कृत के बड़े से बड़े महाकाव्यों में भी छन्दों का इस प्रकार का प्रयोग-वैपुल्य प्रायोदुर्लभ ही है । यहां, कवि द्वारा प्रसंगानुकूल प्रयुक्त कतिपय छन्दों का सौन्दर्य-निरूपण प्रस्तुत है । ----- प्रथम सन्धि के ग्यारहवें कडवक में जिनेन्द्र-स्तुति के लिए प्रयुक्त 'शशितिलक' छन्द की भक्त्यात्मक-मनोरमता और गेयता ध्यातव्य है । इस मात्रिक/वाणिक छन्द में बीस मात्राएं रहती हैं और सभी वर्ण लघु होते हैं । मात्रा की लघुता के कारण इसमें गेयता का सहज समावेश हुमा है । यथा जय मह कुसुमसरइसुपहरप्रवहरण । _जय जणणजरमरणपरिहरण सुह-चरण ॥ जय षणयकयसमवसरणागयजणसरण । .......... जय विमलजसपसरभुवरणयलसियकरण ॥ 1.11.5-8. _ 'मलिल्लह' (अडिल्ल, अरिल्ल, अलिल्ल) मात्रिक छन्द की गति में अद्भुत नर्तनशीलता है । यह छन्द सोलह मात्राओं का होता है और प्रत्येक चरण के अन्त में लघु रहता है । यह प्राकृत और अपभ्रंश का अतिशय प्रिय छन्द है। कवि ने इसका प्रयोग हृदय को प्रस्पन्दित करनेवाले मगधदेश के सुन्दर सरोवरों के वर्णन-क्रम में किया है । यथा जहिं सुसरासण सोहियविग्गह, कयसमरालीकेलिपरिग्गह । रायहंस वरकमलुक्कंठिय, विलसइं बहुविहपत्तपरिट्ठिय । 1.3.7-8

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