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सुदंसणचरिउ प्रयोजन की दृष्टि से
... -श्री श्रीयांशकुमार सिंघई
सुदंसणचरिउ स्पष्टतः एक चरितकाव्य है जिसमें मुनि नयनन्दी ने अपने चरित-नायक सुदर्शन के व्यक्तित्व को अपने प्राभ्युदयिक प्रयोजन के मौचित्य में ही स्वीकार किया है। इसके अध्ययन से ज्ञात होता है कि इसमें चरितनायक या नायिका जैसे किसी पात्र का सुस्पष्ट प्रभावोत्पादक नख-शिख वर्णन नहीं है और न ही यहां शृंगार-प्रमुख भोग-संभोग की दृष्टि कोई महत्त्व पा सकी है । सुदर्शन (3.10-11), मनोरमा (4.2-3) और अभया. (7.9,7.19, 8.20-21) के शरीर सौंदर्य का यत्किचित् सोपम समावेश इसमें अवश्य है पर वह भी प्रोक्त का विसंवादी नहीं है । धाईवाहन राजा की महारानी अभया के शयनागार में पंडिता द्वारा जबरदस्ती लाये गये सामायिकलीन सुदर्शन के प्रति कामासक्त प्रभया की लुभाऊ कामचेष्टायें (828) अवश्य इसका अपवाद हो सकती थीं यदि उनका तालमेल उभयव्यापारसम्पन्न हो जाता किन्तु ढ़प्रतिज्ञ सुदर्शन की निर्वेदनिमग्नता से वे भैस के सामने बीन बजाने जैसी ही साबित हुई हैं। इसी प्रकार बसन्ताग़मन को भी कवि शृंगार के रंग में रंगता अवश्य है पर उसका जोर भी नायकों को अपने व्रताचरण से डिगा नहीं पाता और न ही कामपीड़ित मलनामों की चतुराई कारगर सिद्ध होती है । पन्ततः सारा प्रसंग रागसम्पृक्त श्रृंगार की अपेक्षा निर्वेद-निर्मित व्रताचरण की ही महत्ता ख्यापित करता है ।
___ साहित्यकार प्रायः अपने धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं दार्शनिक विचारों को प्रचारित करने के प्रयोजन से रचनाकर्म में प्रवृत्त होता है, भले ही रचना के स्थूल कलेवर में प्रोक्त प्रयोजन का भाव न होता हो पर सूक्ष्मता में इसके होने का प्रमाण निःसन्देह