Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ 38 जनविद्या पर माधारित ज्योतिष-विषयक ज्ञान को विश्वसनीय बतलाना कवि का प्रयोजन है और 'अपशकुन के भय से व्रत नहीं छोड़ना चाहिये' यह अनुकरणीय है। 6. पंडिता द्वारा जबरदस्ती रानी के शयनागार में लाये गये सुदर्शन का चिन्तन लौकिक सदाचार का प्रेरक है-'क्या मैं वह प्रेमकांड करू जो पंडिता बता रही है, हाय-हाय यह तो बड़ा निन्दनीय है, करना तो दूर इसका विचार भी बुरा है । जो कोई काम से खंडित नहीं हुमा वही सराहनीय पंडित है । सत्पुरुष का मन गंभीर होता है. वह विपत्ति में भी कायर नहीं बनता । क्या सुरों द्वारा मंथन किये जाने पर सागर अपनी मर्यादा छोड़ देता है (8.23)।' 7. सेठ सुदर्शन मुनि समाधिगुप्त से धर्मोपदेश सुन विरक्त हो जाता है मौर मुनिदीक्षा स्वीकार करने के पूर्व अपने पुत्र को लोकव्यवहार और राजकीय व्यवहार की शिक्षा (6 18-19) देना नहीं भूलता । 'दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व इस लौकिक कर्तव्य का निर्वाह भी होना चाहिये' यह प्रेरणा देना यहां कवि का प्रयोजन है। .. 8. 'अपकार करनेवाले के प्रति भी उपकार करे (9.17), कुलपुत्रियों के लिए संसार में एक अपना पति ही सेवन करने योग्य है (8.6), जीवन पानी के बुदबुदे के समान क्षणभंगुर होता है (9.20) इत्यादि वाक्यों का समावेश मात्र लौकिक प्रयोजन के ही निदर्शन हैं। ___ इनके अतिरिक्त कवि का स्वयं का भी अपना एक लौकिक प्रयोजन है-यश-लाभ के लिए काव्य की रचना करना । वे स्वयं लिखते हैं-सुकवित्व, त्याग और पौरुष द्वारा ही भुवन में यश कमाया जाता है । सकवित्व में तो मैं अप्रवीण हूं, धनहीन होने से त्याग भी क्या कर सकता हूं तथा सुभटत्व तो दूर से ही निषिद्ध है । इस प्रकार साधनहीन होते हुए भी मुझे यश का लोभ है अतः शक्ति अनुसार पद्धड़िया छन्द में अपूर्व काव्य की रचना करता हूं (1.1-2) । परमलौकिक प्रयोजन भगवद्भजन करना, व्रताचरण में लगना, मंत्रादि का स्मरण-उच्चारण प्रादि करना तथा वीतरागी उपादानों में श्रद्धामूलक विश्वास पैदा करना धर्माभिव्यंजन के लिए प्रथम भूमिका में एक प्रावश्यक पात्रता है । यह पात्रता अपने पाठक या श्रोता में पैदा करने के उद्देश्य से कवि जो प्रेरणायें प्रस्तुत करता है वे परमलौकिक प्रयोजन के अन्तर्गत निश्चित होती हैं । वस्तुतः ऐसी प्रेरणायें लौकिकता की ही पोषक हैं फिर भी भोगविलासितावाली लोकरुचि से हटकर धर्म की जिज्ञासा को जागृत करना इनका प्रयोजन होता है, यही इनका परमत्व है । सुदंसणचरिउ की रचना का स्थूल प्रयोजन भी यही है। .... णमोकार मंत्र के प्रति जनसाधारण में प्रास्था उत्पन्न करने व उसकी प्रभावना के उद्देश्य से कवि अपने काव्य का मारंभ णमोकार मंत्र से करता है तथा कहता है कि इस पंचणमोकार को पाकर एक ग्वाला भी सुदर्शन होकर मोक्ष गया (1.1)। विचारणीय है कि णमोकार मंत्र के प्रभाव से मोक्ष होता है क्या? यदि होता है तो हम जैसे लोगों को जो प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक णमोकार मंत्र का जाप-स्मरण-उच्चारण प्रादि करते हैं, मोक्ष क्यों नहीं हो जाता और यदि नहीं होता है तो कवि का उपर्युक्त कपन झूठा क्यों नहीं है ?

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116