Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 53
________________ बनविधा लमोकार मंत्र के प्रति अपार श्रद्धा रखते हुए भी हमारा मोक्ष नहीं होता तथा णमोकार मंत्र के प्रति प्रास्थावान् होकर ग्वाला सुदर्शन बनकर मोक्ष गया है। ये दोनों ही कथन शत: प्रतिशत सही हैं। हम णमोकार मंत्र के प्रति केवल बुद्धिगत श्रद्धा रखते हैं, मागे नहीं बढ़ते, ग्वाला इससे प्रागे बढ़ा । मरणकाल आने पर वह निदान करता है कि मैंने णमोकार मंत्र का प्राज तक जो भी श्रद्धासहित ध्यान किया है उसका यदि कुछ फल है तो मैं इसी वणिक् कुल में पैदा होऊं ताकि अपने पापों को नष्ट करके बहुसुखस्वरूप मोक्ष को पा सकू (2.14)। वह वणिक कुल में इसलिए पैदा होना चाहता है क्योंकि वह यह मानता है कि यह मंत्र इसी कुल की माम्नाय का है। यहां दो विशेषतायें सामने पाती हैं-(1) वह णमोकार मंत्र का विवेकपूर्वक ध्यान करता था और (2) णमोकार मंत्र के प्रति आस्था रखकर स्वयं पाप-मल को नष्ट करने का पुरुषार्थ करना चाहता था। वह यह कदापि नहीं मानता था कि णमोकार मंत्र के प्रभाव से ही मेरा मोक्ष हो जायगा । यदि मानता तो वैसा निदान क्यों बांधता, सीधा मोक्ष ही क्यों न मांग लेता ? . स्पष्ट है कि ग्वाले ने णमोकार मंत्र के अवलम्बन से अपनी प्रास्था को द्विगुणित किया, उसे वीतरागता को समर्पित किया और उससे प्रेरणा लेकर अपने वीतरागी स्वभाव तक पहुंचने का स्वपुरुषार्थ किया जिससे वह सुदर्शन बनकर मोक्ष चला गया। हम ऐसा नहीं करते प्रतः हमारा मोक्ष नहीं होता । णमोकार मन्त्र के प्रभाव से ग्वाले को मोक्ष हुआ उसमें उसका जो अपेक्षित स्वपुरुषार्थ गर्भित है वही मोक्ष का अविनाभावी कारण है, यह जानना चाहिये। इस प्रकार ग्वाले से सुदर्शन और फिर मोक्ष तक की यात्रा को गभित करनेवाली पंचणमोकार-मन्त्र-प्रभावना कथा सिद्ध करती है कि णमोकार मन्त्र का जाप-स्मरण प्रादि म्यक्ति में धर्म की जिज्ञासा को जगाते हैं। कवि का परमलौकिक प्रयोजन भी यही है कि जिसके अनुरूप अर्थात् पाठकों में धर्म प्रकट करने की पात्रता पैदा करने के लिए उसने कई प्रसंगों में कई प्रेरणायें दी हैं । कुछ का उल्लेख इस प्रकार है 1. जिनेन्द्रदेव जो उक्त प्रयोजन की पूर्ति में प्रादर्श हैं, के प्रति प्रास्था पैदा करके कवि राजा श्रेणिक के माध्यम से सद्विचार प्रकट करता है-मनुष्यत्व का फल धर्म की विशेषता है । मित्रता का फल हितमित उपदेश है । वैभव का फल दीन-दुःखियों को प्राश्वासन देना है । तर्क का फल सुन्दर सुसंस्कृत भाषण करना है। शूरवीरता का फल भीषण रण मांडना है । तपस्या का फल इन्द्रिय-दमन है । सम्यक्त्व का फल कुगति का विध्वंस करना है। सज्जनता का फल दूसरों के गुणों की प्रशंसा करना है । बुद्धिमत्ता का फल पाप की निवृत्ति तपा मोक्ष का फल संसारनिवृत्ति है । जीभ का फल प्रसत्य की निन्दा करना है, सुकवित्व का मान जिनेन्द्र भगवान् का गुणगान करना है। प्रेम का फल सद्भाव प्रकट करना व अच्छी प्रमुता का फल.प्राज्ञापालन है । ज्ञान का फल गुरुजनों के प्रति विनय प्रकाशित करना तथा नेत्रों का फल जिनेन्द्र भगवान् के चरणों का दर्शन करना है (1.10)। ....

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