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सुदंसणचरिउ का छान्दस वैशिष्ट्य
-डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव
अपभ्रंश के काव्यों में प्रायः छन्दों की बहुत ही चामत्कारिक योजना प्राप्त होती है, किन्तु मुनि नयनन्दी (11 वीं शती) द्वारा विरचित अपभ्रंशकाव्य 'सुदंसणचरिउ' में तो छन्दों की विपुलता और विविधता के साथ ही विस्मयकारी विचित्रता भी दृष्टिगत होती है । वैसे तो कवि ने अपनी इस काव्यरचना को 'पद्धडियाबन्ध' (1.2.3) कहा है-'णियसन्तिएं तं विरयेमि कव्वु, पद्धडियाबन्धे जं प्रउन्धु', किन्तु यह अपभ्रंश छन्द-शैली की सामान्य अभिधा प्रतीत होती है । वास्तविकता यह है कि कवि ने इस काव्य में अपनी छान्दस निपुणता प्रदर्शित करने का विशेष प्रायोगिक प्रयत्न किया है। कवि ने अनेक अपरिचित या अल्पज्ञात छन्दों का नामोल्लेख भी कर दिया है और कहीं-कहीं उनके लक्षणों को भी अंकित कर दिया है। जैसे–'ससितिलमो णाम छंदो' (1.11), 'उविंदवज्जा', 'उपजाई' (4.13.1 और 3), मंजरी, खंडिया, गाहा-'इय तिमंगियाणाम छंदो' (4.14.1 व 3) 'छंदु दिनमणि इमो' (7.18), 'पारंदियाणाम पद्धड़िया' (8,17), 'चंडवालुत्ति णामेण दंडो इमो' (8.26), 'भुजंगप्पयामो इमो णाम छंदो' (12.9) आदि ।
____ इस काव्य के छन्दों की विविधता और विचित्रता इसकी कथावस्तु के वैविध्य और वैचित्र्य को संकेतित करती है । राजा श्रेणिक (विम्बिसार) और गौतम गणधर के प्रश्नोत्तर के रूप में, बारह सन्धियों में परिबद्ध 'सुदंसणचरिउ' कथात्मक काव्य है। इसकी रचना विशेषतया जैनधर्म के लोकप्रसिद्ध पंचनमस्कार-मन्त्र के जप का माहात्म्य बताने के लिए हुई है। मूल कथा इस प्रकार है