Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 42
________________ 28:4 जैनविद्या धूलिरज सहसा उठकर दोनों संन्यों को युद्ध से रोकने लगा । वह मानो उनके पैरों लगकर मनाने लगा । फटकार दिये जाने पर भी वह कटाक्षों से उनकी कटि पर स्थिति प्राप्त करता । वहां से अपमानित होने पर 'कष्ट नहीं होता और वक्षस्थल में प्रेरणा करता हुभा दिखाई देता । वह योद्धाओं के दुर्निवार घातों से शंकित हुआ उनके दृष्टि-प्रसार को बलपूर्वक ढ़क देता । उक्त दोनों उदाहरणों में से पहले में जल कामासक्त पुरुष और दूसरे उदाहरण धूलि युद्धोन्मादियों में समझौता कराने की चेष्टा करनेवाले बिचौलियों की चेष्टाएँ प्रदर्शित कर रहे हैं । लोकोक्ति 'लोकोक्ति' को अलंकार के रूप में पाश्चात्य साहित्यशास्त्र में अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है । 'सुदंसणचरिउ' में उल्लेखनीय लोकोक्तियां इस प्रकार हैं 1. गए सलिलसमूहे पालिहि वंधणु कि कुरणमि । 7.11.12 जल के ' बह जाने पर पाल बांधने से क्या प्रयोजन ? 2. होउ सुवण्गेण वि तें पुज्जइ कण्णजुयलु जसु संगे छिज्जइ । 8.3.5 जिसके संसर्ग से कान छिदे उस सोने की दूर से ही पूजा भली । 3. बुद्धसद्ध कि कंजिउ पूरइ । 8.8.8 'इच्छा की पूर्ति क्या कांजी से होगी ? दूष की 4. लुरणेवि सीसु कि प्रक्वय छुम्भहि । 8.14.4 सीस काटकर उस पर अक्षत फेंकने से क्या लाभ ? 'यश देनेवाले 'सुकवित्व', 'त्याग' और 'पौरुष' इन तीनों तत्त्वों में से 'सुकवित्व' के लिए अपने को समर्थ पानेवाले 'नयनंदी' भ्रमर यश के भागी बने हैं। उनके सुलक्षण कवित्व मैं सहज प्रलंकारों से भूषित होने पर अधिक निखार और रूप बढ़ा है, ऐसा उक्त विवेचन से स्पष्ट हैं।

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