Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 40
________________ जैनविचा कि तार तिलोत्तम इंबपिया, कि गायवहू इ ह एवि पिया। कि देववरंगरण किं व विहि, कि कित्ति प्रमी सोहग्गणिही । किं कति सुबुद्धि कइंदथुना, कि रोहिणी रण सुकंतिजुया । कि मंवोपरि कि जणयसुमा, कि वा दमयंती चारभुमा । कि पीइ रई अह खेयरिया, कि गंग उमा तह किणरिया । 4.4.1-5 यह तारा है या तिलोत्तमा या इन्द्राणी या कोई नागकन्या प्रा खड़ी हुई है अथवा यह कोई उत्तम देवांगना है ? यह घृति है या कृति या सौभाग्यनिधि ? यह कान्ति है या सुबुद्धि या कवीन्द्रों द्वारा स्तुत सरस्वती या उत्तम कान्ति से युक्त रोहिणी ? यह मन्दोदरी है या जनकसुता या सुन्दर भुजाओंवाली दमयन्ती? यह प्रीति, रति, खेचरी, गंगा, उमा अथवा किन्नरी में से कौन है ? रूपवती मनोरमा में सादृश्य के कारण अनेक नारीरूपों की कल्पना की गई है किन्तु निश्चय नहीं हो पाया अतः यहां सन्देह अलंकार है। विरोधाभास हऊँ कुलीणु अवगणियउ उच्छलंतु अकुलीगउ वृत्तउ । 9.6.1 मैं (धूलिरज) कुलीन (पृथ्वी में लीन) होने पर अपमानित होता हूँ और ऊपर उछलते हुए-अकुलीन (पृथ्वी से असंलग्न) कहलाता हूं। यहां कुलीन होने पर भी अपमान पाना और अकुलीन होने पर उन्नत माना जाना वास्तव में विरोधी बातें हैं किन्तु 'कु' का अर्थ पृथ्वी समझ लेने पर कोई विरोध नहीं रह जाता। प्रतिशयोक्ति पयपम्भारणमियवसुहायल चूरियसयलविसहरा। खरकण्णाणिलेण णीसेस वि प्राकंपवियसायरा । प्रहगंभीरबहलगलगज्जियवहिरियसयलकारगणा । 9.7.7-10 - वे (हाथी) अपने पदों के भार से वसुधातल को झुका रहे थे, पाताल के समस्त नागों को चूरित कर रहे थे, अपने कानों के तीव्र वायु वेग से समस्त समुद्रों को कंपायमान कर रहे थे, वे अत्यन्त गम्भीर थे, अपनी घोर गर्जना से समस्त वन को बहरा कर रहे थे । हाथियों की शक्ति का मिथ्यात्वपूर्ण वर्णन होने के कारण उक्त पद्यांश में 'प्रत्युक्ति' पथवा 'पतिशयोक्ति' प्रलंकार है। कारणमाला जहां अगले-अगले अर्थ के प्रति पहिले-पहिले अर्थ हेतु-रूप में वर्णित हों वहां कारणमाला प्रलंकार होता है। 'सुदंसणचरिउ' में एक उदाहरण है -

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