Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 22
________________ जनविद्या नखशिख-वर्णन काव्यशास्त्रीय कसौटी पर खरा उतरता है इसके वर्णन में भारतीय परम्परा का अनुवर्तन हुमा है । कवि ने नखशिख-वर्णन मनोरमा के चरणों से प्रारम्भ कर केशों पर समाप्त किया है । अंगों के उपमान यद्यपि प्रसिद्ध हैं तथापि वर्णन में अनूठापन है । इस प्रकार के वर्णन का माभास संस्कृत कवियों के कुछ पद्यों में मिलता है । यथा - _____ यत्तवन्नेत्रसमानकान्ति सिलले मग्नं तदिन्दीवरम् । अर्थात् हे सुन्दरि ! तुम्हारे नेत्रों के समान कान्तिवाला नीलकमल जल में डूब गया । रूपवर्णन की इस शैली का आभास हिन्दी में विद्यापति के पदों में भी दृष्टिगोचर होता है ।10 मनोरमा के रूपवर्णन में कतिपय उपमानों की छाया सूफी कवि जायसी के पदमावती रूपवर्णन में दर्शित है। - 'सुदंसणचरिउ' में श्रृंगार के प्रसंग में स्त्रियों के भेद इंगितों के प्राधार पर चार बताये गये हैं-भद्रा, मंदा, लय और हंसी। वर्गों के आधार पर वे ऋषिस्त्री, विद्याधरी, यक्षिणी, सारसी तथा मृगी मादि कल्पित की गई हैं (4.5) । तदनन्तर देशभेद से उनका विभाग किया गया है-मालविनी, संघवी, कौशली, सिंहली, गौड़ी, लाटी, कालिंगी, महाराष्ट्री प्रादि । भिन्न भिन्न देशों के अनुसार उनके स्वभाव का भी दिग्दर्शन कराया गया है (4.6) । इसके बाद वात, पित्त और कफ की प्रधानता के प्राधार पर उनका वर्गीकरण किया गया है (4.7) । इसी प्रसंग में मंदा, तीक्ष्ण, तीक्ष्णतरा और शुद्ध, अशुद्ध, मिश्र आदि भेदों की अोर निर्देश कर (4.8) कविश्री नयनंदि ने अपने व्यापक ज्ञान का परिचय दिया है । डॉ. रामसिंह तोमर ने इस वर्गीकरण में रीतिकाल की नायिका-भेद की प्रवृत्ति के बीज की पोर निर्देश किया है ।। रानी प्रभया की परिचारिका पंडिता में दूती का रूप देखा जा सकता है । इस प्रवृत्ति का प्रस्फुट सा प्राभास अपभ्रंश कवि श्री वीर विरचित महाकाव्य 'जंबूसामिचरिउ' में भी परिलक्षित है। ___ 'सुदंसणचरिउ' की नवी सन्धि में वीर रस के अभिदर्शन होते हैं । राजा धाड़ीवाहन पौर राक्षस के युद्ध की तुलना स्त्री-पुरुष के मथुन ..से की गई है (9.4)। करुणा, रति, क्रोध, उत्साह प्रादि स्थाई-भावों के अतिरिक्त अन्य कितने ही छोटे-छोटे भावों और विभिन्न मानसिक दशामों का चित्रण कविश्री नयनंदि ने किया है अन्त में कथानायक सुदर्शन द्वारा दीक्षा धारण कर मोक्षपथ के गामी होने से शांतरस का परिपाक होता है । इस कारण काव्य में महाकाव्यत्व की अपेक्षा नाटकत्व का प्राधान्य है। ... इस प्रकार 'सुदंसणचरिउ' में शृंगार रस की यमुना मोर वीर रस की गंगा प्रबहमान है और पन्त में शांत रस की सरस्वती के सम्मिलन से प्रानंद का संगम मुखर है । भाषा-भाषा की दृष्टि से कविश्री नयनंदि की भाषा शुद्ध साहित्यिक अपभ्रंश है जिसमें अपने समय का सभी विशेषताएँ विद्यमान हैं । जहां एक ओर सुभाषित तथा मुहावरों के प्रयोग से भाषा में प्रांजलता मुखर है वहां दूसरी ओर स्वाभाविकता और लालित्य का समावेश भी है । यथा

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