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जैन विद्या
8. तो सोहइ उग्गमिउ गहे ससिप्रद्धउ विमलपहालउ ।
गावइ लोयहं वरिसिपउणहसिरिए फलिहकच्चोलउ ॥ 8.17.9-10 उस समय आकाश में प्रभायुक्त अर्द्ध-चन्द्रमा उदित हुमा मानो नभश्री ने लोगों को अपना स्फटिक का कटोरा दिखलाया हो ।
प्रथम उदाहरण में समुद्र की ओर बढ़ती हुई नदियों में 'अभिसारिका नायिका' की, तृतीय उदाहरण में दृष्टि में 'भ्रमर-पंक्ति' की, अभया में 'विषवेलि' की संभावना की गई है। दूसरे उदाहरण में स्तनों के ऊपर लटकते हुए हार में 'माकाशगंगा', 'कामदेव के पाश', 'बसंतलक्ष्मी के हिंडोले' की तीनों कल्पनाएँ बेजोड़ हैं । पांचवे उदाहरण में खम्भा लेकर दौड़ते हुए योद्धा में 'ऐरावत हाथी', छठे उदाहरण में शोणितनद में 'यमजिह्वा', पाठवे उदाहरण में प्राकाश में तत्काल उदित हुए अर्द्धचन्द्र में 'स्फटिक का कटोरा' की कल्पनाएं संभावित हैं । सातवें उदाहरण में घने अन्धकार में 'नीले रस' और 'अभया के अपयश' की संभावनाएं की गई हैं । विभिन्न वस्तुओं में समानधर्मी उपमानों की संभावना के कारण सभी उदाहरणों में वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। हेतूत्प्रेक्षा
हेतूत्प्रेक्षा में अहेतु में हेतु की सम्भावना की जाती है अर्थात् जो हेतु नहीं है उसे हेतु मान लिया जाता है।
'सुदंसणचरिउ' में हेतूत्प्रेक्षा के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं - __1. जा लच्छिसम तहे का उवम जाहे गइए सकलतई।
_णिक णिज्जियइ णं लज्जियई हंसई माणसि पत्तई । 4.1.12-13
जिसकी गति से मानो पराजित व लज्जित होकर हंस अपनी कलत्र (हंसनियों) सहित मानस-सरोवर को चले गये।
2. चाहे सुरोमावलिए परज्जिय गाइणि बिले पइसइ णं लज्जिय । 4.2.9
उसकी सुन्दर रोमावलि से पराजित होकर मानो लज्जित हुई नागिनी बिल में प्रवेश कर जाती है।
उक्त पद्यांशों में हंस के मानस-सरोवर चले जाने और नागिन के बिल में प्रविष्ट हो जाने के रूप में पहेतु में हेतु की सम्भावना की गई है, अतः हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है । प्रतीप
उपमेय के सामने उपमान के तिरस्कार होने पर प्रतीप अलंकार होता है । इसमें उपमान को उपमेय की उपमा के अयोग्य बतलाकर प्रायः उसका तिरस्कार किया जाता है । प्रभया के रूप की प्रशंसा में यह द्रष्टव्य है -
लायण सोहग्गे उत्तम, तुह समारण एउ रंभ तिलोत्तम । मोणइ सइ पउलोमी मच्छर, सम्व वि तुह विहवें णिम्मच्छर। तुह बुनिए सरसइ विण पुज्जइ...........----7.9.6