Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ जैन विद्या 21 मालोपमा एक ही साधारण धर्म के आधार पर किसी वस्तु के लिए कई उपमान जुटाने के कई उदाहरण 'सुदंसणचरिउ' में हैं । कान्तिहीन अभया पुताई से रहित जर्जर 'भित्ति', 'जीर्ण चित्र' और 'शोभाहीन पुरानी देवकुटी' के समान है (8.1.15) । शुभ्र राजमहल को 'तारों', 'हारावलि' और 'कुन्दपुष्पों' की उपमाएं दी गई हैं (8.1.8) । विरक्तभावी सुदर्शन को राज्य-वैभव 'इन्द्रधनुष' और 'ढलते हुए दिन' से थोड़ा भी अधिक स्थायी प्रतीत नहीं होता (9.19)। - अपनी मां के गर्भ में स्थित सुदर्शन 'आकाश में उगते सूर्य' 'कमलिनी-पत्र पर स्थित 'जलबिन्दु' तथा 'सीपी में विद्यमान मोती' तीनों वस्तुओं के समान लुभावना है (3.2) । मनोरमा भी 'रति' 'सीता' व 'इन्द्राणी' तीनों सुन्दरियों के समान है (2 4.10) । विवाहवेदी पर बैठे हुए मनोरमा और सुदर्शन को रोहिणी-चन्द्र तथा बिजली-मेघ के युगल से उपमित किया गया है (5.5)। रूपक . पुत्तु एक्कु कुलगयणदिवायरु, जणगिमागरयणहो रयणाय: । 7.9.10 पुत्र एक कुलरूपी गगन का सूर्य तथा माता के मानरूपी रत्न का रत्नाकर होता है । तिसल्लवेल्लि-दुक्खहुल्लि-तोडणेकसिंधुरो । 10.3.15 वे (मुनि विमलवाहन) त्रिशल्यरूपी 'वेलि' के दुःखरूपी 'फल' को तोड़ने में 'हस्ती' के समान अद्वितीय थे। उक्त दोनों उदाहरणों में से पहले उदाहरण के उपमेय 'पुत्र' में 'सूर्य' और 'रत्नाकर' का प्रारोप है । दूसरे उदाहरण में विमलवाहन मुनि पर 'हस्ती' का प्रारोप मानते हुए 'त्रिशल्य' और 'दुःख' में क्रमश: 'बेलि' और 'फल' के प्रारोप किये गये हैं, अतः इन पद्यांशों में रूपक अलंकार है। सांग रूपक जब उपमेय के अंगों पर भी उपमान के अंगों का आरोप किया जाय तब सांग रूपक अलंकार होता है । 'सुदंसणचरिउ' के वर्णनात्मक प्रसंगों में से नदी में सुन्दरी (2.12), रुधिर से परिपूर्ण युद्धभूमि में प्रलयंकारी नदी तथा वन वृक्षावली में नायिका के आरोप सांग रूपक के उत्तम उदाहरण हैं। उपमेय 'यौवन' और उसके अंगों पर उपमान 'वन' का उसके अंगों सहित भारोप का एक छोटा सा नमूना है. भुयवल्लीकरपल्लविउ थणफलणमिउ जोवणु वणु षण्णउ सेवइ। 5.8.12 भुजारूपी वल्लरी हाथरूपी पल्लव और स्तनरूपी फलभार से झुके हुए पौवनरूपी वन का सेवन कोई धन्य पुरुष ही करता है। ' -

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116