Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 36
________________ 22 उत्प्रेक्षा 'उत्प्रेक्षा' अलंकार के प्रकारों में वस्तुत्प्रेक्षा के उदाहरण 'सुदंसणचरिउ' में अधिक हैं 1.2.14 जह इउ पद्मोहर मरणहरिउ दीसह मंथरगमणिउ । गाहही सायरहो सलोरणहो जंतिउ गं वररमणिउ ॥ जल से परिपूर्ण मनोहर नदियां धीमी गति से खारे समुद्र की प्रोर बहती हुई ऐसी शोभायमान होती हैं मानो मनोहारिणी युवतियां अपने सलोने पति पास जा रही हों । बैठी । सिहिरहं उवरि हारु परिघोल, राहगंगापवाहु गं लोलइ । ग्रहणं कामवासु भावालउ, ग्रह णं महुसिरीहि हिंबोलउ ।। 7.19.5-6 उसके स्तनों के ऊपर हार लटकने लगा मानो श्राकाशगंगा का प्रवाह कल्लोलें ले रहा हो अथवा मानो वह भावों का निधान कामदेव का पाश हो अथवा मानो वसंतलक्ष्मी का हिंडोला हो । जैन विद्या 3. कासु विमारिणरिणमुहे बिट्ठि जाइ, वरपंकए छप्पयपंति गाइँ । 8.18.8 किसी की मानिनी के मुख पर दृष्टि पड़ गई मानो सुन्दर कमल पर भ्रमर-पंक्ति श्रा 4. इय चितिवि सविल क्खियए प्रभया महएविए वरिगवर । चाउद्दिसु वेढवि लइयउ विसवेल्लिए णं चंदरगत ।। 8.33.11-12 ( परदारगमन का आरोप दिखाने के लिए) महादेवी प्रभया ने सुदर्शन को चारों ओर से लपेट लिया मानो विष की लता ने चन्दन वृक्ष को वेष्टित कर लिया हो । 5. रणरहसेरा को वि सुहड पवर भंभु उम्मूलिवि घावइ । दारणवंतु थिरथोरकरु दुष्णिवारु सुरवारणु गावइ ।। 9.1.19-20 .. कोई सुभट रण के प्रवेग से एक बड़ा खम्भा उखाड़कर दौड़ पड़ा मानो मद भराता हुमा स्थिर घोर स्कूल सूंडवाला दुनिवार ऐरावत हाथी प्रकट हुआ हो । 6. हि सुहह समरे तक्खणे लोहियसरि गोसारिय । दावंती भउ सुररणरहं गावइ कालें जीह पसारिय ॥ 9.5.10 उस क्षरण समर में प्रहार करते हुए योद्धानों ने खून की नदी बहा दी मानो काल ने - देवों और मनुष्यों को भय देनेवाली अपनी जीभ पसार दी हो । 7. रणं इय चित्रिकरण प्रत्थमियर, प्रलिउलगवलवण्णु तमु भमियउ । गं विहिरणा जगअंबरहो, वोलेवए किउ गीलरसु । ग्रहवा गं प्रभर्याहि तरणउ दीसह पवियंभिङ प्रवजसु ॥ 18.19.10 चन्द्र अस्त हो गया और भ्रमर-समूह और जंगली भैंसे के समान कृष्ण वर्ण प्रन्धकार फैल गया हो मानो विधि ने जगरूपी वस्त्र को नीले रस में डुबा दिया हो अथवा मानो अभया का अपयश प्रकट होकर दिखलाई देने लगा हो ।

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