Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 33
________________ - जनविद्या 19 19 स्वभावोक्ति जब किसी वस्तु के स्वभाव का तथ्यपूर्ण वर्णन किया जाता है तब वहां स्वभावोक्ति अलंकार होता है साहुसुदंसरणरूवणियच्छणे अंगई अंगु बलंतियउ । पाइउ जोवणइत्तिउ गारिउ मेहलदाम खलंतियउ। 11.2.7-8. सुदर्शन मुनि का सौंदर्य देखने के लिए यौवनवती नारियां एक दूसरे के अंग से अग का घर्षण करती हुई व मेखला को स्खलित करती हुई दौड़ पड़ी। अतिशय सौंदर्य के प्रति किसी का भी इस तरह प्राकृष्ट होना सहज स्वभाव होता है अतः यह स्वभावोक्ति अलंकार है। उपमा नायक और नायिका के रूप-वर्णन के लिए नयनन्दी ने परम्परागत और नवीन दोनों प्रकार के उपमान जुटाये हैं । कवि ने नायक के बाल, नेत्र, उन्नत भाल. चंचल प्रांखें, नासिका, दंतपंक्ति. होठ क्रमशः भ्रमरसमूह, कमलपत्र, अर्द्धचन्द्र, मच्छ, चम्पा, मुक्ताफल, बिम्बाफल से उपमित किये हैं । भ्रूलताओं को कामदेव के धनुष-दंड, नाभि को सर्पगृह, स्वर को नये मेघ की ध्वनि से उपमित करना नवीन प्रयोग हैं। नयनंदी ने नायिका. के मुख, नेत्र, सघन स्तन, दंतपंक्ति, हथेली को क्रमशः चन्द्र, मृग, कलश, अनार-दाने व अशोकपत्र की उपमाएं जुटाई हैं। देहयष्टि को 'लहलाती बेलि', भुजाओं को 'किसलय' अथवा 'लता', केशबन्ध को 'मयूरपिच्छ' की उपमाएँ बड़ी प्राकर्षक हैं। नायिका के अधरों को बिम्बाफल और नासिका को चम्पक पुष्प की उपमाएँ नायक के समान ही हैं। नायक के गौर वर्ण को 'चन्द्र' किन्तु नायिका के वर्ण को 'चन्दन' और 'केशर' की उपमाएं दी गई हैं। 'नदी-युवती' 'राजा-हंस', 'नगरराजा', 'फलदायी वृक्ष-राजा, 'सुन्दरी-हंसिनी', 'हथनियां-सुन्दरियां' के युग्मों में स्थान-स्थान पर एक वस्तु दूसरे से उपमित हुई हैं । मूर्त के लिए मूर्त उपमान के दो उत्तम उदाहरण हैं 1. उठ्ठिय पक्खजुया कीरिय णं फुरइ प्रसारिय। 10.5.16 वह (अभया) पंख लगी चींटी के सदृश क्षुद्रतावश उत्तेजित हो चमक उठी। 2. बहुविजण सोहहिं थाले थाले, गक्लत्त पाई गयणंतराले। 5.6.3 थाल में रक्खे हुए विभिन्न व्यंजन प्राकाश में विद्यमान नक्षत्रों के समान शोभायमान मूर्त के लिए अमूर्त और प्रमूर्त के लिए मूर्त उपमान जुटाना कवि का बड़ा कौशल माना जाता है । हिन्दी के छायावादी काव्य की तो यह एक पहचान मान ली गई है । हिन्दी साहित्य की अन्य कई विशेषताओं की तरह इसके बीज भी अपभ्रंश काव्य में विद्यमान हैं। महाकवि नयनन्दी ने 'सुदंसणचरिउ' में गोप की तीव्र गति को 'मन' और उसके छिपने को शीघ्र लुप्त होनेवाले 'धन' से उपमित किया है (2.13.4) । दुःख देने के कारण गोप के पेट में चुभे हुए ढूंठ की समानता दुष्ट वचनों में देखी गई है (2.14.4) गर्भिणी के स्तनों की श्यामलता दूसरे की ख्याति से कुढ़नेवाले दुर्जन के स्वभाव जैसी है (3.3.1) । बारात में परोसे गये, मुख में

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