Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 31
________________ सुदंसणचरिउ में अलंकार-योजना -डॉ० गंगाराम गर्ग णो संजावं तरुणिमहरे विद्दुमारत्तसोहे। यो साहारे भमियभमरे व पुंडच्छदंरे। जो पीऊसे णहि मिगमदे चंदणे व चंदे । ___सालंकारे सुकइभणिदे जं रसं होइ कन्वे । 3.1 प्रवाल की लालिमा से शोभित तरुणी के अधर, भौंरों को नचानेवाले प्राम, मधुर , ईख, अमृत, कस्तूरी, चन्दन अथवा चन्द्र में भी वह रस नहीं है जो सुकवि रचित अलंकारयुक्त काव्य में मिलता है। • महाकवि नयनन्दी के उक्त कथन से स्पष्ट है कि वह अलंकारयुक्त काव्य को ही संसार की सर्वाधिक सरस उपलब्धि बतलाते हैं। एक अन्य पद्यांश (2.6.3) में भी सुलक्षण और प्राभूषणों को युवती के प्राकर्षण का हेतु मानकर उन्होंने काव्य की श्रेष्ठता का प्राधार भी लक्षण और अलंकारों की प्रचुरता निर्धारित किया है। इन उदाहरणों से नयनंदी के अलंकारप्रिय होने में कोई संदेह नहीं रह जाता। सुदंसणचरिउ में उपमा, उत्प्रेक्षा एवं उदाहरण अलंकार की तो भरमार है ही अन्य प्रलंकार भी यथास्थान प्रयुक्त हुए हैं। _ 'सुदंसणचरिउ' में शब्दालंकारों में श्लेष के उदाहरण प्रधिक किन्तु अनुप्रास, वक्रोक्ति और यमक के उदाहरण कम हैं। अनुप्रास हा हा गाह सुदंसरण सुंबर सोमसुह । सुप्रण सलोण सुलक्सण जिणमइअंगबह ॥ 8.41.1

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