Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 32
________________ 18 जैन विद्या यमक पुणु दिगई णाणा तिम्मणाई, प्रइतिक्खइं णावई तिम्मणाई। 5.6.10 उक्त पद्यांश में 'तिम्मणाई' शब्द के दो बार पाने और दोनों बार उसका अलग-अलग अर्थों में प्रयोग होने के कारण यमक अलंकार हुआ। तिम्मणाइं=(1) अचार (2) तिय-मन । श्लेष लक्खरणवंति य सालंकारिय, सुकइकहा इव ब्रणमणहारिय । कुंकुमकप्पूरेण पसाहिय, वणराइ व तिलयंजणसोहिय ॥ 2.6.3-4 वह (अर्हदासी सेठानी) सुलक्षणों से युक्त व अलंकार धारण किए हुए, लोगों के मन को उसी प्रकार आकृष्ट करती थी जैसे काव्य के लक्षणों से युक्त अलंकार-प्रचुर सुकविकृत कथा। कुंकुम और कपूर से भ्रमित तथा अंजन व तिलक से युक्त वह वणराजि के समान शोभायमान थी। पद्यांश में 'सेठानी' और 'कविकथा' के सम्बन्ध में 'लक्षण' और 'प्रलंकार' के तथा 'सेठानी' और 'वनराजि' के सम्बन्ध में 'कुंकुम', 'कपूर', 'तिलक' और 'अंजन' के अलग-अलग अर्थ होने के कारण श्लेष अलंकार है । बहुविम्भम बहुभमण उहयपक्खदूसणपयासिय । तोरिणि जिह तिह जुवइ मंदगई सलोणहु समासिय ॥ 8.36.12-13 युवती एक नदी के सदृश बहुविभ्रम, उभयपक्षों को दूषण लगानेवाली, मंदगति एवं सलोने (सुन्दर पुरुष या लवण समुद्र) का प्राश्रय लेनेवाली होती है। उक्त छंदांश में 'नदी' और 'युवती' दोनों को उल्लिखित विशेषण शब्द दोनों के प्रसंग में अलग-अलग अर्थ प्रदर्शित करते हैं। भज्जत वि जण न वि परिहरंति । सुसणेह कासु वल्लह न होंति ॥ 5.6 6 उन (खाजा) के भग्न होने पर भी लोग उन्हें नहीं छोड़ते क्योंकि जिनमें स्नेह (घृत व प्रेम) होता है वे किसे प्यारे नहीं लगते । उक्त पद्यांश में 'स्नेह' के दो अर्थ 'घृत' और 'प्रेम' होने के कारण श्लेष अलंकार हुआ। वक्रोक्ति को वि भणहकते वियसिउ प्रसोउ, सा भगवस वियसइ प्रसोउ । पिए मिट्टई एयई सिरिहलाई, मिठई जि होंति पिय सिरिहलाई ॥ 7.15.4-5 कोई कहता है कान्ते ! यह अशोक कसा विकसित हो रहा है ? वह कहतीअशोक (प्र-शोक) विकसित होगा ही । कोई कहता-ये श्रीफल (नारियल) कितने मीठे हैं ? वह कहती-श्री फल (लक्ष्मी का परिणाम) मीठा होगा ही।".....""प्रस्तुत पद्यांश में नायिका द्वारा प्रशोक और श्रीफल वृक्षों के अर्थ 'प्र-शोक' 'श्री-फल' कल्पित कर लिये गये हैं अतः यहां दूसरा अर्थ कल्पित कर लेने के कारण वक्रोक्ति अलंकार है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116