Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ प्रभात वरणन में कविश्री नयनंदि ने प्रत्यूष मातंग द्वारा संसार-सरोवर से नक्षत्ररूप कुमुद और कुमुदिनियों के नाश और शशिरूप हंस के पलायन का दृश्य प्रस्तुत किया है। सूर्य को केसरी और गाढ़ान्धकार को गज बताते हुए एवं सूर्य को दिग्वधू का लीलाकमल, गगनाशोक को कुसुमगुच्छक, दिनश्री को विद्रुमलता का कंद और नभश्री को सुन्दर कस्तूरी बिन्दु का निर्देश करते हुए कवयिता ने प्राचीन परम्परा का ही निर्वाह किया है ( 5.10 ) । सूर्यास्त वर्णन कविश्री ने सूर्य के अस्त हो जाने कारण की सुन्दर कल्पना की है - वारुणी, सुरा में अनुरक्त कौन उठकर भी नष्ट नहीं होता ? प्रतएव सूर्य भी वारुणी-पश्चिम दिशा के अनुराग से उदित होकर अस्त हो गया (5.8 ) । हिन्दी के प्राचार्य कवि केशवदास ने भी अपनी 'रामचन्द्रिका' में एक स्थान पर यही भाव अभिव्यक्त किया है । यथा जहीं वारुणी की करी रंचक रुचि द्विजराज । नहीं कियो भगवंत बिन संपति सोभा साज ॥ इस प्रकार कविश्री नयनंदि द्वारा वर्णित नानारूपों में प्रकृति-चित्ररण उनके कला-कौशल का सुन्दर दिग्दर्शन है । रसयोजना - कविश्री नयनंदि हिन्दी के कवि केशवदास की भांति सालंकार - काव्य में ही अपूर्व रस की स्थिति स्वीकारते हैं । यथा— जैनविद्या यथा गो संजावं तरुणिग्रहरे विदुमारत्तसोहे । गो साहारे भमियभमरे व पुडुच्छवंडे । गोपीऊसे गहि मिगमदे चंदणे व चंदे । सालंकारे सुकईभरिगदे जं रस होइ कव्वे ।। 3.1 अर्थात् जो आनंद (रस) सुकवि की सालंकार कविता में भाता है वह न कामिनियों. के आरक्त प्रघरों में प्राप्त होता है, न भ्रमरकूजित श्राम्रमंजरियों में, न पीन ईखदंड में, न पीयूष में और न चंदन में तथा चन्द्रमा में प्राप्त होता है । कवि का यह कथन उनकी रचना पूर्णतः दृष्टिगत है । - 'सुसरणचरिउ' में शृंगार, वीर और शांत रसों का समावेश द्रष्टव्य है । मनोरमा के सौन्दर्यचित्रण में और अन्य अनेक महिलाओं के रूपवर्णन में शृंगार रस की अभिव्यंजना बहुलता से हुई है । वीर रस के अभिदर्शन घाड़ीवाहन के युद्धप्रसंग में होते हैं लेकिन अन्त में सदाचार की स्थापना और वैराग्य के प्रवर्तन से रसों का पर्यवसान शांत रस में होता है । मनोरमा के अंगवर्णन में नखशिख वर्णन की परिपाटी कविकाव्य में परिलक्षित है । जा लच्छिसम तहे का उवम जाहे गइए सकलत्तई । गिरु रिगज्जियहं णं लज्जियई हंसई माणसि पत्तई ॥ 4.1 जाहे जरण सारण ग्रइकोमल, पेच्छेवि जले पइट्ठ रसुप्पल । जाहे पायणहमरिहि विचित्त, गिरसियाई गहे ठिय णक्खत ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116