Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 23
________________ जनविद्या करे कंकणु किं प्रारसि दोसइ। 7.2.3 हाथ कंगन को पारसी क्या ? ग्रहण कवण णेहें संताविउ । 7.2.10 प्रेम ने किसको संतापित नहीं किया ? . एक्के हत्थे तालु किं वज्जइ, कि मरेवि पंचमु गाइज्जह। 8.3.3 क्या एक हाथ से ताली बजती है, क्या मरण पर पंचम राग गाया जाता है ? पर उवएसु दितु बहुबाणउ। 8.8.4 पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जोव्वणु पुणु गिरिणहवेयपुल्लु, विद्वत्तें होइ स्ववंगु ढिल्लु । 9.21.2 यौवन पहाड़ी नदी के तुल्य होता हैं । वृद्धत्व से सब अंग शिथिल हो जाते हैं । भाषा को अनुरणनात्मक बनाने के लिए शब्दों की और शब्दसमूहों को प्रावृत्ति के के अनेक निदर्शन मिलते हैं । राजा और राक्षस दोनों रथ पर चढ़ युद्ध करते हैं । टन-टन बजते . घण्टे और खन-खन करती शृंखला से चित्र सजीव हो उठा है । यथा कंचरिणवढए, उब्भिय सुचिधए। धगधगगियमणियरे, मंदकिकिणिसरे । मणजवपयट्टए, टणटरिणयघंटए । ध्वधूमाउले, गुमगुमियपलिउले । खणखणियसंखले, बहुवलणचंचले, हिलहिलियहयवरे, एरिसे रहवरे ॥ 9.11 तत्सम, तद्भव और देशी शब्दों के व्यवहार से भाषा में सरलता और सरसता का संचार हुआ है । उसमें भी देशी शब्दों की बहुलता कवि-काव्य की अपनी विशेषता है । अपभ्रंश की ध्वनियां तथा शब्द-भण्डार कवि-काव्य में वे ही हैं जो अन्य प्राकृतों में उपलब्ध हैं। समस्त काव्य में अलंकृत पदावली द्रष्टव्य है । कवि के प्रकाण्ड पाण्डित्य के प्रभिदर्शन काव्य के प्रत्येक पद में दर्शित हैं ।18 इस काव्य की भाषा भावों के अनुकूल सजीव एवं सप्राण है । वस्तुतः कविश्री नयनंदि के प्रबन्धकाव्य 'सुदंसणचरिउ' की भाषा स्वयंभू और पुष्पदंत के सदृश टकसाली होते हुए भी प्रसाद गुण से सम्पृक्त है । इस प्रकार भाषा-सौष्ठव और वर्णनशैली के आधार पर 'सुदंसणचरिउ' एक उत्कृष्ट काव्य सिद्ध होता है । अंलकार-योजना-'सुदंसणचरिउ' अलंकार-प्रधान रचना है। अर्थालंकार और शब्दालंकारों का प्रचुर प्रयोग द्रष्टव्य है । उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक और विरोधाभास प्रादि अलंकारों का व्यवहार श्लेषाधारित है । यह कवि की कल्पना पौर शब्द चातुरी का का परिचायक है। साम्य प्रदर्शन हेतु कविश्री द्वारा शब्दगत साम्य की ही ओर अधिक ध्यान दिया गया है । अप्रस्तुत योजना में कवि द्वारा प्रायः मूर्त उपमानों का ही प्रयोग हुआ है ।

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