Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 28
________________ 14 . जनविद्या के शब्दों की रचना तथा विभिन्न भावों को प्रकट करनेवाले नूतन एवं प्रर्थभित शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। जहां कवि क्रिया-विशेष का वर्णन करता है वहां क्रियापदों की झड़ी लगा देता है । उदाहरण के लिए, वह मद्य-पान के दोषों का वर्णन करता हुआ कहता है संषिजंतए सुहुमई सत्तई तं जो घोट्टई गायइ णच्चाई कविलई वंदइ प्रभणिउ जंपइ जुवइहि लग्गइ भउहउ वंकइ पडइ विहत्थहो छरइ हेरइ रुज्झइ बन्झइ भज्जगुणंतए । होंति बहुतई। सो गर लोट्टइ। सुयणई णिदइ । विहसइ कंपइ । रंगइ वग्गइ । मा उ जि संगइ । गज्जइ रिकइ। रत्यहिं कत्थहो । पारइ मारइ । बुझइ मुज्झइ । 6.2. अर्थात् सड़ने-गलने पर ही मदिरा बनाई जाती है । उसमें अनेक तरह के सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं । उस शराब को जो पीता है वह मनुष्य उन्मत्त होकर लोटने लगता है, गाता है, नाचता है, सज्जनों की निन्दा करता है, कुत्तों की वन्दना करता है, हंसता है, कांपता है, बिना बुलाये बोलता है, रेंगता है, कूदता है, युवतियों से लगता है, माता से भी संग करता है, भौहें मरोड़ता है, गर्जता है, रेंकता है, विह्वल होकर मार्ग में कहीं भी गिर पड़ता है, चिल्लाता है, खीजता है, फाड़ता है, मारता है, रुघता है, बांधता है, जूझता है, मूच्छित हो जाता है। __प्रस्तुत कथाकाव्य की रचना एक दीर्घ परम्परा की प्रानुपूर्वी में हुई है। स्वयं कवि ने इसकी प्राचीनता का उल्लेख करते हुए श्रुत-परम्परा का विवरण दिया है। उनके अनुसार इस कथावस्तु की अर्थ-सृष्टि अर्थात् भावात्मक रचना अहंन्तों ने की थी। पश्चात् कथा की ग्रन्थसिद्धि गौतम गणधर ने की और उनकी क्रम-परम्परा में अनुक्रम से सुधर्म-स्वामी तथा जम्बूस्वामी इन तीन केवलियों ने, पश्चात् स्वर्गगामी विष्णुदत्त ने फिर नन्दिमित्र, अपराजित, सुरपूजित गोवर्द्धन और फिर भद्रबाहु परमेश्वर इन पाँच श्रुत केवलियों ने, तदनन्तर विशाख मुनीश्वर, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, धर्मप्रवर्तक जय, नाग, सिद्धार्थ मुनि, तपस्वी घृतिसेन, विजयसेन, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन इन ग्यारह दशपूर्वियों ने, फिर नक्षत्र, जयपाल मुनीश्वर, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंसाचार्य इन पांच एकादशांग धारकों ने, और फिर नरश्रेष्ठ सुभद्र, यशोभद्र, लोहार्य और शिवकोटि इन चार एकांगधारक मुनीन्द्रों ने तथा अन्य मुनियों ने अविकल रूप से जैसा प्रवचन में भाषित किया है वैसा ही पंचनमस्कार मन्त्र का फल-कथन किया गया है । कवि की मौलिकता विशेष रूप से विविध वर्णनों में, रस-विधान में, प्रसंगानुसार विभिन्न छन्दोयोजना में तथा बिम्बविधान में स्पष्ट रूप से लक्षित होती है । सम्पूर्ण काव्य

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